पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५१८

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उपसंहार। ४०६ तरह उपनिपदों और गीता का यह पनुमान भी (पी. ३. १ और गीता 15. १७) यौन धर्म में मान्य हो गया है कि जिसका मन एक बार शुद्ध और निष्काम हो जाता है, उस स्थितप्रज्ञ पुरुप से फिर कभी पाप होना संभव नहीं, अर्थात् सब कुछ करके भी यह पाप-पुण्य से अलिप्त रहता है। इसीलिये बौद्ध धर्मग्रन्यों में अनेक स्थलों पर वर्णन किया गया है, कि नई ' अर्थात् पूर्णावस्था में पहुँचा हुमा मनुष्य हमेशा ही शुद्ध पौर निप्याप रहता है (धम्मपद २६४ और २८५; मिलिंद-प्र. ४.५.७)। पशिमी देशों में नीति का निर्णय करने के लिये दो पंप है:-पहला श्राधि- देयत पंथ, जिसमें सदसद्विवेक-देवता की शरण में जाना पड़ता है और दूसरा माधिभौतिक पंथ कि जो इस बाल कसौटी के द्वारा नीति का निर्णय करने के लिये कहता है कि "मधिकांश लोगों का अधिक हित किसमें है।"परन्तु जपर किये गये विवेचन से यह स्पष्ट मालूम हो सकता है, फि ये दोनों पंघ शाख-दृष्टि से अपूर्ण तथा एक-पनीय हैं। कारण यह है कि सदसहिचेक-शक्ति कोई स्वतंत्र वस्तु या देवता नहीं है, किन्तु वह पवसायातमक युद्धि में ही शामिल है, इसलिये प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव के अनुसार उसकी सदसद्विवेक-धुद्धि भी सात्विक, राजस या तामस हुश्रा करती है। ऐसी अवस्था में उसका कार्य अकार्य- निर्गाय दोपरहित नहीं हो सकता। और, यदि फेवल "अधिकांश लोगों का अधिक सुख" किसमें है, इस यात प्राधिभौतिक कसौटी पर ही ध्यान देकर नीतिमत्ता का निर्णय करें, तो कर्म करनेवाले पुरुष की बुद्धि का कुछ भी विचार नहीं हो सकेगा। तय, यदि कोई मनुष्य चोरी या व्यभिचार करे और उसके याय अनिष्टकारक परि- गणामों को कम करने के लिये या छिपाने के लिये पहले ही से सावधान होकर कुछ कुटिल प्रबंध कर ले, तो यही कहना पड़ेगा कि उसका दुष्कृत्य, आधिभौतिक नीति- रष्टि से, उतना निन्दनीय नहीं है। प्रतएप यह बात नहीं, कि केवल वैदिक धर्म में ही कायिक, चाचिक और मानसिक शुद्धता की आवश्यकता का वर्णन किया गया हो (मनु. १२.३८६. २८.); किन्तु वाइयल में भी प्यभिचार को केवल कायिक पाप न मानकर, परस्त्री की ओर दूसरे पुरुपों का देखना या परपुरुप की और दूसरी खियों का देखना भी व्यभिचार माना गया है (मेथ्यू. ५. २८) और चौद्धधर्म में कायिक अर्थात् याला शुद्धता के साथ साथ वाचिक और मानसिक शुद्धता की भी आवश्यकता बतलाई गई है (धम्म.६६ और ३६१)। इसके सिवा ग्रीन साहय का यह भी कहना है, कि यास सुख ही परम साध्य मानने से मनुष्य-मनुष्य में और राष्ट्र-राष्ट्र में उसे पाने के लिये प्रतिद्वन्द्विता उत्पन हो जाती है और कलह निर्णय पारने के लिये मानसिक स्थिति का विचार अवश्य करना पड़ता है । धम्म-पद का भक्समूलर साहब ने अंग्रेजी में भाषान्तर किया है। उसमें इस श्लोक की टीका देखिये । S. B. E. Vol. X. pp, 3, 4.