५०२ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र । धर्म के समूलं च विनश्यति' होने का समय आ गया था। परन्तु वौद धर्म के हास के बाद वेदान्त के साथ ही गीता के भागवतधर्म का जो पुनरूजीवन होने लगा था, उसके कारण हमारे यहाँ यह दुष्परिणाम नहीं हो सका । जब कि दौलताबाद का हिन्दू राज्य मुसनमानों से नष्ट भ्रष्ट नहीं किया गया था, उसके कुछ वर्ष पूर्व ही श्रीज्ञानेश्वर महाराज ने हमार सामान्य से भगवद्गीता को मराठी मापा में अलंकृत कर ब्रह्मविद्या को महाराष्ट्र प्रान्त में अति सुगन कर दिया था। और, हिन्दुस्थान के अन्य प्रान्तों में भी इसी समय अनेक साधुसन्तों ने गीता के मतिमार्ग का उपदेश जारी कर रखा था । यवन-ब्राह्मण-चांडाल इत्यादिकों को एक समान और ज्ञानमूनक गीताधर्म का जाज्वल्य उपदेश (चाह वह वैराग्य- युक्त नकि के रूप में ही क्यों न हो) एक ही समय चारों और लगातार जारी था, इसलिये हिन्दूधर्म का पूरा न्हास होने का कोई भय नहीं रहा । इतना ही नहीं बल्कि उसका कुछ कुछ प्रमुत्व मुसलमानी धर्म पर भी जमने लगा, कबीर जैसे मक इस देश की सन्त-मराटली में मान्य होगये और औरंगजय के बड़े भाई शाह- जादा दारा ने इसी समय अपनी देखरेख में टपनिपदों का फारसी में भाषान्तर कराया ! यदि वैदिक भक्ति धर्म अध्यात्मज्ञान को छोड़ केवल तांत्रिक श्रदा के ही आधार पर स्थापित हुआ होता, तो इस बात का संदेह है कि उसमें यह विलक्षण सामयं रह सकता या नहीं। परन्तु भागवतधर्म का यह आधुनिक पुनरुज्जीवन मुसलमानों के ही ज़माने में हुआ है, अतएव वह भी अनेकांशी में केवल मकि- विश्यक अयात् एक-देशीय हो गया है और मूल भागवत-धर्म के कर्मयोग का जो स्वतंत्र महत्व एक वार घट गया या वह टसे फिर प्राप्त नहीं हुआ । फलतः इस समय के भागवतधर्मीय सन्तजन, पढिएत और आचार्य लोग भी यह कहने लगे कि कर्मयोग भक्तिमार्ग का अंग या साधन है, जैसा. पहले संन्यासमार्गीय लोग कहा करते थे कि कर्मयोग संन्यासमार्ग का अंग या साधन है। उस समय में प्रचलित इस सर्वसाधारण मत या समझ के विरुद्ध केवल श्रीसमर्थ रामदासस्वामी ने अपने 'दासबोध' ग्रन्य में विवेचन किया है। कर्ममार्ग के सच्चे और वास्तविक महत्व का वर्णन, शुद्ध तथा प्रासादिक मराठी भाषा में, जिसे देखना हो उसे समय कृत इस अन्य को विशेषतः उत्तरार्ध को अवश्य पढ़ लेना चाहिये । शिवाजी महाराज को श्रीसमर्थ रामदासस्वामी का ही उपदेश मिला था; और, मरहठों के ज़माने में जब कर्मयोग के तात्रों को समझाने तथा उनके प्रचार करने की प्रावश्यकता मालूम होने लगी, तव शांडिल्यसूत्रों तथा ब्रह्मसूत्रमाप्यों के बदले महाभारत का गया। त्मक भाषान्तर होने लगा एवं वखर' नामक ऐतिहासिक लेखा के रूप में 'हिन्दी-नियों को यह जानकर इपं होगा कि वे सब समर्थ रान्दानन्वामीकृत स्त 'धान्डोष' नामक नराठी ग्रंय के उपदेशामृत से वंचित नहीं रह सकते, क्योंकि उनका शुद्ध, सरल कथा हृदयग्राही नुवाद हिन्दी में भी हो चुच है। यह हिन्दी ग्रन्य चित्रशाला प्रेम,पूना ने मिलता है।
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