उपसंहार। उसका अध्ययन शुरू हो गया । ये भाषान्तर तंजौर के पुस्तकालय में आज तक रखे हुए हैं। यदि यही कार्य-क्रम यहुत समय तक अबाधित रीति से चलता रहता, तो गीता की सब एक-पक्षीय और संकुचित टीकाओं का महत्व घट जाता और काल-मान के अनुसार एक बार फिर भी यह बात सब लोगों के ध्यान में आ जाती, कि महाभारत की सारी नीति का सार गीता-प्रतिपादित कर्मयोग में कह दिया गया है। परन्तु, हमारे दुर्भाग्य से कर्मयोग का यह पुनरुजीवन बहुत दिनों तक नहीं ठहर सका। हिन्दुस्थान के धार्मिक इतिहास का विवेचन करने का यह स्थान नहीं है। ऊपर के संक्षिप्त विवेचन से पाठकों को मालूम हो गया होगा, कि गीताधम में जो एक प्रकार की सजीवता, तेज या सामथ्र्य है वह संन्या स-धर्म के उस दबदबे से भी बिलकुल नष्ट नहीं होने पाया, कि जो मध्यकाल में दैववशात् हो गया है। तीसरे प्रकरण में हम बतला चुके हैं, कि धर्म शब्द का धात्वर्थ "धारण धर्मः" है और सामान्यतः उसके ये दो भेद होते हैं-एक पारलौकिक और दूसरा " व्यावहारिक, " अथवा " मोदधर्म" और " नीतिधर्म" । चाहे वैदिक धर्म को लीजिये, बौद्धधर्म को लीजिये अथवा ईसाई धर्म को लीजिये, सब का मुख्य हेतु यही है कि जगत् का धारण-पोपण हो और मनुष्य को अंत में सद्गति मिले; इसीलिये प्रत्येक धर्म में मोक्षधर्म के साथ ही साथ व्यावहा- रिक धर्म-अधर्म का भी विवेचन घोड़ा बहुत किया गया है। यही नहीं बल्कि यहाँ तक कहा जा सकता है, कि प्राचीन काल में यह भेद ही नहीं किया जाता था कि 'मोक्षधर्म और व्यावहारिक धर्म भिन्न भिन्न हैं। क्योंकि उस समय सब लोगों की यही धारणा थी कि परलोक में सद्गति मिलने के लिये इस लोक में भी हमारा आचरण शुद्ध ही होना चाहिये । वे लोग गीता के कथनानु- सार यही मानते थे कि पारलौकिक तथा सांसारिक कल्याण की जड़ भी एक ही है । परन्तु आधिभौतिक ज्ञान का प्रसार होने पर आजकल पश्चिमी देशों में यह धारणा स्थिर न रह सकी और इस बात का विचार होने लगा कि मोक्षधर्म- रहित नीति की, अर्थात् जिन नियमों से जगत् का धारण-पोपण हुआ करता है जन नियमों की, उपपत्ति बतलाई जा सकती है या नहीं और, फलतः केवल प्राधि- भौतिक अर्थात् दृश्य या व्यक्त अधार पर ही समाजधारणाशास्त्र की रचना होने लगी है । इस पर प्रश्न होता है. कि केवल व्यक्त से ही मनुष्य का निर्वाह कैसे हो सकेगा? पेड़, मनुष्य इत्यादि जातिवाचक शब्दों से भी तो अन्यक्त अर्थ ही प्रगट होता है न । आम का पेड़ या गुलाब का पेड़ एक विशिष्ट दृश्य वस्तुं है सही ; परन्तु 'पेड़' सामान्य शब्द किपी भी दृश्य अथवा व्यक्त वस्तु को नहीं दिखला सकता । इसी तरह इमारा सब व्यवहार हो रहा है । इससे यही सिद्ध होता है, कि मन में अव्यक्त सम्बधी कल्पना की जागृति के लिये पहले कुछ न कुछ व्यक वस्तु आँखों के सामने अवश्य होनी चाहिये परन्तु इसे भी
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