पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४३

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५०४ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र । निश्चय ही जानना चाहिये कि व्यक्त ही कुछ अंतिम अवस्था नहीं है, और बिना अन्यत्त का आश्रय लिये न तो हम एक कदम आगे बढ़ा सकते हैं और न एक वात्य ही पूरा कर सकते हैं । ऐसी अवस्था ने, अध्यात्म-दृष्टि से सर्वभूतात्मश्य- रूप परब्रह्म की अव्यक्त कल्पना को नीतिशास का आधार यदि न मानें, तो भी उसके स्थान में " सर्व मानवजाति" को अचान् आँखों से न दिखनेवाली अत- एव अध्यक्त वस्तु को ही अंत में देवता के समान पूजनीय मानना पड़ता है। आधिभौतिक पण्डितों का कथन है कि "सर्व मानवजाति " में पूर्व की तथा मवि. प्यत् की पीढ़ियों का समावेश कर देने से अनृतत्त्व-विषयक मनुन्य की स्वामाविक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट हो जाना चाहिये और अब तो प्रायः वे समी सच्चे हृदय से यही उपदेश करने लग गये हैं, कि इस (मानवजातिल्पी) बड़े देवता की प्रेम- पूर्वक अनन्यभाव से उपासना करना, उसकी सेवा में अपनी समस्त प्रायु को विता देना, तथा उसके लिये अपने सय स्वाधों को दिलाञ्जलि दे देना ही प्रत्येक मनुष्य का इस संसार में परम कर्तव्य है। फ्रेंच पंडित कोन्ट द्वारा प्रतिपादित धर्म का सार यही है और इसी धर्म को अपने ग्रंथ में उसने " सफल मानवजाति-धर्म" या संक्षेप में "मानवधर्म" कहा है। आधुनिक जमन पंडित निदो का भी यही हाल है। इसने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि उजीसवीं सदी में " परमेवर मर गया है" और अध्यात्मशास्त्र योया झगड़ा है। इतना होने पर भी उसने अपने सभी ग्रन्थों में आधिौतिक दृष्टि से ही कर्म-विपाक तथा पुनर्जन्म को मंजूर करके प्रतिपादन किया है, कि काम ऐसा करना चाहिये जो जन्म-जन्मान्तरों में भी किया जा सके, और समाज की इस प्रकार व्यवस्था होनी चाहिये कि जिससे भविष्य में ऐसे मनुष्य प्राणी पैदा हों जिनकी सत्र मनोवृत्तियाँ अत्यंत विकसित होकर पूणावस्या में पहुंच जावे बस, इस संसार में मनुष्यमान का परमात्म्य और परमसाध्य यही है। इससे स्पष्ट है कि जो लोग अध्यात्मशास्त्र को नहीं मानते, उन्हें भी कर्म-अकर्म का विवेचन करने के लिये कुछन कुछ परमसाध्य अवश्यमानना पड़ता है और वह साध्य एक प्रकार से "अव्यक" ही होता है। इसका कारण यह है कि यद्यपि प्राधि. भौतिक नीतिशास्त्रज्ञों के ये दो ध्येय है-(७) सब मानवजातिल्प महादेव को पा- सना करके सब मनुष्यों का हित करना चाहिये, और (२) ऐसा कम करना चाहिये कि जिससे भविष्यत् में अत्यंत पूर्णावस्या में पहुँचा हुना मनुष्य-प्राणी उत्पन्न हो सके तथापि जिन लोगों को इन दोनों ध्येयों का उपदेश किया जाता है उनकी दृष्टि से वे अगोचर या अन्यक्त ही बने रहते हैं । कोन्ट अथवा निशे का यह उपदेश ईसाई-धर्म सरीखे तत्त्वज्ञानरक्षित केवल प्राधिदैवत भक्तिमार्ग का विरोधी मले कोन्ट ने अपने धर्म का Religion of Humanity नाम रखा है। उनका Fan Thala A System of Positive Polity (Eog. trans, in four Vols.) नामक ग्रन्य में किया गया है। इस ग्रंथ में इस बात को उत्तम चर्चा की गई है कि केवल आधिमौतिक दृष्टि में भी समान-धारणा किस तरह की जा सकती है।