उपसंहार। ही हो; परन्तु जिस धर्म-अधर्म-शान का अथवा नीतिशान का परम ध्येय मध्यात्म-दृष्टि से सर्वभूतात्मपप्रज्ञानरूप साष्य की या फर्मयोगी स्थितप्रन की पूर्णावस्था की नींव पर स्थापित हुआ है, उसके पेट में सय साधिभौतिक साभ्यो का विरोधरहित समावेश सहज ही में हो जाता है । इससे कभी इस भय की माशंका नहीं हो सकती, कि अध्यात्मशान से पवित्र कियागया वैदिक धर्म वक्त उप- देश से क्षीण हो जायेगा। अय प्रश्न यह है कि यदि भव्यक्त को ही परम साध्य मानना पड़ता है, तो यह सिर्फ मानव जाति के लिये ही क्यों माना जाय ? अर्थात् वह मर्यादित या संकुपित क्यों कर दिया जाय? पूर्णावस्था को ही जय परमसाध्य मानना है, तो उसमें से आधिभौतिक साध्य की अपेशा, जो जानवर और मनुष्य दोनों के लिये समान हो, माधकता ही क्या है ? इन प्रश्नों का उत्तर देते समय मध्यात्म-रष्टि से निष्पन्न होनेयाले समस्त घराचर सृष्टि के एक भनिर्वाच्य परम- तस्य की ही शरण में पाखिर जाना पड़ता है। अर्वाचीन काल में प्राधिभौतिक शानों की अश्रुतपूर्व उन्नति हुई है. जिससे मनुष्य का दृश्य दृष्टिविषयकज्ञान पूर्व- काल की अपेक्षा सैकड़ों गुना अधिक बढ़ गया है। और, यह बात भी निर्विवाद सिन्द है कि "जैसे को तैसा"इस नियम के अनुसार जो प्राचीन राष्ट्र इस प्राधिभौतिक ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर लेगा उसका, सुधरे तुप नये पाशात्य राष्ट्रों के सामने, टिझना मसंभव है । पातु माधिभौतिक शास्त्रों की चाहे जितनी यून्धि क्यों न हो जावे यह अवश्य ही कहना होगा कि जगत के मूलतत्व को समझ लेने की मनुष्यमान की स्वाभाविक प्रवृत्ति केवल आधिभौतिकवाद से कभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सकती। केवल व्यक्त सृष्टि के ज्ञान से सय पातों का निर्वाह नहीं हो सकता, इस- लिये स्पेन्सर सरीखे उत्क्रांति-वादी भी पटतया स्वीकार करते हैं, कि नामरूपात्मक श्य-सृष्टि की जद में कुछ अव्यक्त तत्व अवश्य ही होगा । परन्तु उनका यह कहना है कि इस नित्य ताव के स्वरूप को समझ लेना संभव नहीं है, इसलिये इसके प्राधार से किसी भी शास्त्र की उपपत्ति नहीं यतलाई जा सकती । जर्मन- तत्ववेत्ता कान्ट भी अन्यक्त-सृष्टि-तत्व की अशेयता को स्वीकार करता है। तथापि उसका यह मत है कि नीतिशास्त्र की उपपत्ति इसी अगम्य ताव के आधार पर वतलाई जानी चाहिये । शोपेनहर इससे भी आगे बढ़ कर प्रतिपादन करता है, कि यह अगम्य तत्व चासना-स्वरूपी है। और, नीतिशास-सम्बन्धी प्रप्रेज़ अन्धकार प्रीन का मत है, कि यही सृष्टि-तत्त्व आत्मा के रूप में अंशतः मनुष्य के शरीर में प्रादुर्भूत हुआ है । गीता तो स्पष्ट रीति से कहती है, कि " ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।" हमारे उपनिषत्कारों का यही सिद्धान्त है कि जगत् का भाधारभूत यह अव्यक्त तत्व नित्य है, एक है, अमृत है, स्वतन्त्र है, प्रात्मरूपी है- यसा इससे अधिक इसके विषय में और कुछ नहीं कहा जा सकता । और, इस बात में संदेह है कि उक्त सिद्धान्त से भी आगे मानवी-ज्ञान की गति कभी बढ़ेगी या नहीं क्योंकि जगत् का आधारभूत अन्यक्त तत्व इन्द्रियों से भगोचर अर्थात गी.र. ६४
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