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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४५

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५०६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । निर्गुण है इसीलिये उसका वर्णन, गुण, वस्तु या क्रिया दिखानेवाले किसी भी शन्द से नहीं हो सकता और इसीलिये इसे 'अज्ञेय ' कहते हैं । परन्तु अन्यक्त सृष्टि- तत्त्व का जो ज्ञान हमें हुआ करता है वह यद्यपि शब्दों से अधिक न भी बतलाया ना सके और इसलिये देखने में यद्यपि वह अल्पसा देख पड़े; तथापि वही मानवी ज्ञान का सर्वस्व है और इसीलिये लौकिक नीतिमत्ता की उपपत्ति भी उसी के आधार से यतलाई जानी चाहिये; एवं गीता में किये गये विवेचन से यह साफ मालूम हो जाता है, कि ऐसी उपपत्ति उचित रीति से बतलाने के लिये कुछ भी अड़चन नहीं हो सकती । दृश्य-सृष्टि के हजारों व्यवहार किस पद्धति से चलाये जावे-उदाहर- णार्थ, व्यापार कैसे करना चाहिये, लड़ाई कैसे जीतना चाहिये, रोगी को कौनसी ओपधि किस समय दी जावे, सूर्य-चन्द्रादिकों की दूरी को कैसे जानना चाहिये- इसे भलीभाँति समझने के लिये हमेशा नामरूपात्मक दृश्य-सृष्टि के ज्ञान की ही आवश्यकता हुआ करेगी, और, इसमें कुछ संदेह भी नहीं कि इन सब लौकिक व्यवहारों को अधिकाधिक कुशलता से करने के लिये नामल्पात्मक आधिभौतिक शास्त्रों का अधिकाधिक अध्ययन अवश्य करना चाहिये । परन्तु यह कुछ गीता का विषय नहीं है। गीता का मुख्य विषय तो यही है, कि अध्यात्म-दृष्टि से मनुष्य की परम श्रेष्ठ अवस्या को पतला कर उसके आधार से यह निर्णय कर दिया जावे कि कर्म-अमरूप नीतिधर्म का मूलतत्व क्या है। इनमें से पहले यानी आध्या- त्मिक परमसाध्य (मोक्ष) के बारे में प्राधिभौतिक पंप उदासीन भले ही रहे, परंतु दूसरे विषय का अर्थात् केवल नीतिधर्म के मूलवानों का निर्णय करने के लिये भी आधिभौतिक पक्ष असमर्थ है। और, पिछले प्रकरणों में इम बतला चुके हैं कि प्रवृति की स्वतंत्रता, नातिधर्म की नित्यता तथा अमृतत्व प्राप्त कर लेने की मनुष्य के मन की स्वाभाविक इच्छा, इत्यादि गहन विषयों का निर्णय आधिभौतिक पंथ से नहीं हो सकता-इसके लिये आखिर हमें आत्म-अनात्म- विचार में प्रवेश करना ही पड़ता है। परन्तु अध्यात्मशास्त्र का काम कुछ इतने ही से परा नहीं हो जाता । जगत् के आधारभूत अमृतत्व की नित्य उपासना करने से, और अपरोक्षानुभव से, मनुष्य के आत्मा को एक प्रकार की विशिष्ट शान्ति मिलने पर उसके शील स्वभाव में जो परिवर्तन हो जाता है वही सदाचरण का मूल है। इसलिये इस बात पर ध्यान रखना भी उचित है, कि मानव जाति की पूर्णावस्या के विषय में भी अध्यात्मशास्त्र की सहायता से जैसा उत्तम निर्णय हो जाता है, वसा केवल आधिभौतिक सुखवाद से नहीं होता । क्योंकि यह वात पहले भी विचारपूर्वक यतलाई जा चुकी है, कि केवल विषय सुख तो पशुओं का उद्देश या साध्य है, उससे शानवान् मनुष्य की बुद्धि का कमी पूरा समाधान हो नहीं सकता; सुख दुःख अनित्य हैं तथा धर्म ही नित्य है। इस दृष्टि से विचार करने पर सहज ही ज्ञात हो जानेगा, कि गीता के पारलौकिक धर्म तथा नीति-धर्म का प्रतिपादन जगत् के आधार-भूत नित्य तथा अन्त तत्व के आधार से ही किया गया है, इस