पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४६

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उपसंहार। लिये यह परमापधि का गीताधर्म, उस प्राधिभौतिक शाख से कभी हार नहीं खा सकता, जो मनुष्य के सब कर्मों का विधार सिर्फ इस रष्टि से किया करता है कि मनुष्य केवल एक उच्च श्रेगो का जानवर है। यही कारण है कि हमारा गीताधर्म नित्य तथा अभय हो गया है और स्वयं भगवान् ने ही उसमें ऐसा सुप्रबंध कर रखा है, कि हिन्दुसों को इस विषय में किसी भी दूसरे धर्म, अन्य या मत की मोर मुंह ताकने की आवश्यकता नहीं पड़ती । अव सम प्रमज्ञान का निरूपण हो गया, त्य पाशवलय ने राजा जनक से कहा है कि " अभय पै प्राप्तोऽसि"-अब तु ममय हो गया (पृ. ४.२.५); यही थात इस गीता-धर्म के शान के लिये भी अनेक मथों में अक्षरशः कहीं जा सकती है। गीता-धर्म कैसा है? यह सर्वतोपारे निर्भय और व्यापक है। यह सम है प्रांत वर्ण, जाति, देश या किसी अन्य भेदों के झगड़े में नहीं पड़ता, किन्तु सर जोगों को एक ही मापतील से समान सहति देता है। यह अन्य सब धर्मों के विषय में यपाचित सहिष्णुता दिखलाता है यह ज्ञान, भक्ति और, फर्म-युक्त है। और अधिक क्या है, यह सनातन मंदिक-धर्मवृक्ष का अत्यन्त मधुर तथा अमृत- फल है । वैदिक धर्म में पहले द्रव्यमय या पशुमय यज्ञों का अर्थात् केवल कर्म-काएट फा ही अधिक माहात्म्य था, परन्तु फिर उपनिषदों के ज्ञान से यह फेवल कर्मकाण्ड-प्रधान श्रीतधर्म गोगा माना जाने लगा और उसी समय सांख्यशास्त्र का भी प्रादुभाव हुमा । परन्तु यह ज्ञान सामान्य जनों को अगम्य पा और इसका झुकाव भी कर्म-संन्यास की ओर ही विरोप रहा करता था, इसलिये कपल औपनिपदिक धर्म से अथवा दोनों की स्मार्त एकवाक्यता से भी सर्व-साधारण लोगों का पूरा समाधान होना सम्भव नहीं था । अतएव उपनिपदों के केवल घुद्धिगम्य प्रसज्ञान के साथ प्रेमगम्य व्यक्त-उपासना के राजगुह्य का संयोग करके, फर्म- काण्ड की प्राचीन परम्परा के अनुसार ही अर्जुन को निमित्त करके गीता-धर्म सव लोगों को मुक्तकण्ठ से यही कहता है, कि " तुम अपनी अपनी योग्यता के अनुसार अपने अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन लोकसंग्रह के लिये निष्काम युद्धि से, यात्मौपम्य एष्टि से तथा उत्साह से यावजीवन करते रहो; और, उसके द्वारा ऐसे नित्य परमात्म-देवता का सदा यजन करो जो पिण्डवलांड में तथा समस्त प्राणियों में एकत्व से व्याप्त ई-इसी में तुम्हारा सांसारिक तथा पारलौकिक कल्याण है ।" इससे कर्म, बुद्धि (ज्ञान) और प्रेम (भक्ति) के बीच का विरोध नष्ट हो जाता है, और, सय प्रायु या जीवन ही को यज्ञमय करने के लिये उपदेश देनेवाले अकेले गीता-धर्म में सकल वैदिक-धर्म का सारांश आ जाता है। इस नित्यधर्म को पहचान कर, फेवल फतव्य समझ करके, सर्व-भूत-हित के लिये प्रयत्न करनेवाले सैकड़ा महात्मा और कर्ता या वीर पुरुष, जय इस पवित्र भरत-भूमि को अलंकृत किया करते थे, तब यह देश परमेश्वर की कृपा का पात्र बनकर, न केवल ज्ञान के दरन् ऐश्वर्य के भी शिखर पर पहुँच गया था; और, कहना नहीं होगा कि जब से दोनों