पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५५७

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५१५ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट! ५.५ यासांख्यैः प्राप्यते स्थानं० श्वोक। शान्ति. ३०५. १९ और ३१६. ४इन दोनों स्थानों में कुछ पाठभेद से पतित-कराल और याश्वल्प बनक के स्वाद में पाया जाता है। ५. विद्याविनयसंपन्न शेक। शान्ति.२३८.१९ शुक्रानुप्रत्म में अक्षरशः मिलता है। ६.५मात्मैव ह्यात्मनो वंयुः श्लोकार्थ उघोग.३३.३३.६४. विदुरनीति में ठोक और आगामी शोक का अर्थ । ठीक मिलता है। ६.२६ सर्वभूतस्यमात्मानं० श्लोकार्य । शान्ति. २३८. २१. शुकानुप्रन, मनु- स्मृति (२.९१), ईशावास्यो- पनिषद् (६) और वैवल्योपनि- षद (१.१०) में नो व्यों का त्यों मिलता है। ६. ४४ जिज्ञासुरपि योगस्य कार्य । शान्ति. २३५.७ शुक्रानुपन में कुछ पाल भेद करके रखा गया है। ८.३७ सहस्त्रयुगपर्यन्तं० यह शोक पहले शान्ति. २३१. ३१ शुकानुप्रश्न में अक्षरशः युग का अर्थ न बतला कर गोवा में मिलता है और युग का अर्थ वन- दिया गया है। लानेवाला कोष्टक भी पहले दिया गया है । मनुस्मृति में भी कुछ पाठान्तर से मिलता है (मनु.१.७३)। ८.३० यः स सर्वेषु भूतपु० सोना । शान्ति. ३३९.२३ नारायणीय धर्म में कुछ पागन्तर होकर दो दार आया है। ६.३२त्रियो वैश्यास्तथा० यह पूरा क मच. १९.६१ और ६२. अनुगीता में कुछ और नागामी श्रोश का पूवार्थ । पाठान्दर के सायं वेश्ोक है। ५३. १३ सर्वतः पाणिपादक। शान्ति. २३८.२९ अव १९.४९; शुकानु- प्रश्न, अनुगांता तथा अन्यत्र भी यह अक्षरश:मिलता है। इस शोफ का मूल- स्थान श्वेताश्वतरोपनिषद् ९.१६) है। १३.३० यदा भूतस्यामा०शोक। शान्ति. १७.२३ युधिष्ठिर ने अर्जुन से यही शब्द कई हैं। १४.८ अर्व गच्छन्ति सत्वस्या० श्लोक। अब.३९.१० अनुगीता के गुरुशिय संवाद में मरदाः मिलता है। ३६. २१ त्रिविधं नरकस्येदं० लोक। योग. ३२.७० विदुरनीति में अक्षरशः मिलता है।