पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५८६

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भाग ४-भागवतधर्म का उदय और गीता । यह बात प्रगट होती है, कि जिस कुल तथा जाति में श्रीकृष्णजी ने जन्म लिया था उसमें यह धर्म प्रचलित हो गया था, और तभी उन्होंने अपने प्रिय मित्र अर्जुन को उसका उपदेश किया होगा-और यही बात पौराणिक कथा में भी कही गई है। यह भी कथा प्रचलित है, कि श्रीकृष्ण के साथ ही सात्वत जाति का मन्त हो गया, इस कारण श्रीकृष्ण के बाद सात्वत जाति में इस धर्म का प्रसार होना भी संभव नहीं था। भागवतधर्म के मिन्न भिन्न नामों के विषय में इस प्रकार की ऐतिहासिक उपपत्ति पतलाई जा सकती है, कि जिस धर्म को श्रीकृष्णाजी ने प्रवृत्त' किया था वह उनके पहले कदाचित् नारायणीय या पाचरात्र नामों से न्यूनाधिक मंशा में प्रचलित रहा होगा, और भागे सात्वत जाति में उसका प्रसार होने पर उसे सात्वत' नाम प्राप्त हुभा होगा, तदनंतर भगवान् श्रीकृष्ण तथा अर्जुन को नर-नारायण के अवतार मानकर लोग इस धर्म को 'भागवतधर्म' कहने लगे होंगे। इस विषय के संबंध में यह मानने की कोई आवश्यकता नहीं, कि तीन या चार भिन्न भिन्न श्रीकृष्ण हो चुके हैं और उनमें से हर एक ने इस धर्म का प्रचार करते समय अपनी ओर से कुछ न कुछ सुधार करने का प्रयत्न किया है-वस्तुतः ऐसा मानने के लिये कोई प्रमाण भी नहीं हैं । मूलधर्म: में न्यूनाधिक परिवर्तन हो जाने के कारण ही यह कल्पना उत्पन्न हो गई है । बुद्ध काइट, तथा मुहम्मद तो अपने अपने धर्म के स्वयं एक ही एक संस्थापक हो गये हैं और आगे उनके धर्मों में भले-बुरे अनेक परिवर्तन भी हो गये हैं। परन्तु इससे कोई यह नहीं मानता कि बुद्ध, क्राइस्ट या मुहम्मद अनेक हो गये। इसी प्रकार, यदि मूल भागवतधर्म को आगे चलकरं भिन्न भिन्न स्वरूप प्राप्त हो गये, या श्रीकृष्णाजी के विषय में आगे भिन्न भिन्न कल्पनाएँ रूढ़ हो गई, तो यह कैसे माना जा सकता है कि उतने ही भिन्न श्रीकृष्ण भी हो गये ? हमारे मतानुसार ऐसा मानने के लिये कोई कारण नहीं है। कोई भी धर्म लीजिये, समय के हेर-फेर से उसका रूपान्तर हो जाना बिलकुल स्वाभाविक है। उसके लिये इस बात की आवश्यकता नहीं की भिन्न भिन्न कृष्ण, बुद्ध या ईसामसीह wonld not have como to birth at all. " सेनार्ट का यह लेख पूने से प्रकाशित होनेवाले The Indian Interpreter' नामक मिशनरी त्रैमासिक पत्र के अक्टोबर १९०९ और जनवरी १९१० के अंकों में प्रसिद्ध हुआ है; और ऊपर दिये गये वाक्य जनवरी के अंक के १७७ तथा १७८ पृष्ठों में हैं।डा. वूलर ने भी यह कहा है:- “ The ancient Bhagavata, Satvata of Pancharatra sect devoted to the worship of Narayana and his deified teacher Krishna-Deyaki putra dates from a Period long anterior to the rise of Jainas in the Sth Centary Ba 0."-Indian Antiquary Vol. XXIII. (1894)p.248. इस विषय का अधिक विवेचन आगे चल कर इसी परिशिष्ट प्रकरण के छठवें भाग में किया गया है।