पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५९७

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गीतारहस्य मयवा कर्मयोग-परिशिष्ट। अत्यंत प्राचीन पुराणों के कुछ शतक पहले ही यदि वर्तमान गीता पूर्ण- तया प्रमाणभूत (और इसी लिये परिवर्तित न होने योग्य )न हो गई होती, तो उसी नमूने की अन्य गीतामों की रचना की कल्पना होना भी सम्भव नहीं था । इसी प्रकार, गीता के भिन्न भिन्न सांप्रदायिक टीकाकारों ने एक ही गीता के शब्दों की खींचातानी करके, यह दिखलाने का जो प्रयल किया है, कि गीता का अर्थ हमारे ही सम्प्रदाय के अनुकूल है, उसकी भी कोई आवश्यकता उत्पन्न नहीं होती। वर्तमान गीता के कुछ सिद्धान्तों को परस्पर- विरोधी देख कुछ लोग यह शंका करते हैं, कि वर्तमान महाभारतान्तर्गत गीता में भी आगे समय-समय पर कुछ परिवर्तन हुमा होगा। परंतु हम पहले ही बतला चुके है, कि वास्तव में यह विरोध नहीं है, किन्तु यह भ्रम है जो धर्म प्रतिपादन करने. वाली पूर्वापर वैदिक पद्धतियों के स्वरूप को ठीक तौर पर न समझने से हुआ है। सारांश, जपर किये गये विवेचन से यह बात समझ में आ जायगी, कि भिन्न मित्र प्राचीन वैदिक धर्मागों की एकवाक्यता करके प्रवृत्ति मार्ग का विशेष रीति से सम- र्थन करनेवाले भागवतधर्म का उदय हो चुकने पर लगभग पाँच सौ वर्ष के पश्चाद (अर्यात ईसा के लगभग ६०० वर्ष पहले) मूल भारत और मूल गीता, दोनों अन्य निर्मित हुए, जिनमें उस मूल मागवत-धर्म का ही प्रतिपादन किया गया था। और, भारत का महाभारत होते समय यद्यपि इस मूल गीता में तदर्थ-पोषक कुछ सुधार किये गये हों, तथापि उसके असली रूप में उस समय भी कुछ परिवर्तन नहीं दुमा एवं वर्तमान महाभारत में जब गीता जोड़ी गई तब, और उसके बाद भी उसमें कोई नया परिवर्तन नहीं हुआ और होना भी असम्भव था । मूल गीतां तथा मूल भारत के स्वरूप एवं कान का यह निर्णय स्वभावतः स्यूल दृष्टि से एवं अंदाज़न किया गया है। क्योंकि, इस समय उसके लिये कोई विशेष साधन उपलब्ध नहीं है। परन्तु वर्तमान महाभारत तथा वर्तमान गीता की यह बात नहीं; क्योंकि इनके काल का निर्णय करने के लिये बहुतेरे साधन हैं । अतएव इनकी चर्चा स्वतन्त्र रीति से अगले भाग में की गई है । यहाँ पर पाठकों को स्मरण रखना चाहिये, कि ये दोनों अर्थात् वर्तमान गीता और वर्तमान महाभारत-बही अन्य हैं, जिनके मूल स्वरूप में कालान्तर से परिवर्तन होता रहा, और जो इस समय गीता तथा महाभारत के रूप में उपलब्ध है; ये उस समय के पहले के मूल अन्य नहीं हैं। भाग ५ -वर्तमान गीता का काल । इस बात का विवेचन हो चुका, कि भगवद्गीता भागवतधर्म पर प्रधान ग्रंथ है, और यह भागवतधर्म ईसाई सन् के लगभग १४०० वर्ष पहले प्रादुर्भूत हुआ; एवं स्थूल मान से यह भी निश्चित किया गया, कि उसके कुछ शतकों के बाद मून गीता बनी होगी । और, यह भी बतलाया गया, कि भूल भागवतधर्म के निष्काम-