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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६००

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. । परन्तु भाग ५ - वर्तमान गीता का काल। (७) धौद्ध ग्रन्थों के द्वारा यह निश्चित किया गया है, कि शालिवाहन शक के प्रारम्भ में अवघोप नामक एक बौद्ध कवि हो गया है, जिसने धुचरित और सौंदरानंद नामक दो यौद्धधर्मीय संस्कृत महाकाव्य लिखे थे। अब ये अन्य छाप कर प्रकाशित किये गये हैं। इन दोनों में भी भारतीय कथाओं का उल्लेख है । इनके सिवा, वज्रसूचिसोपनिपद पर अश्वघोष का व्याख्यान रूपी एक और ग्रन्थ है अथवा यह कहना चाहिये कि यह वसचि उपनिषद उसी का रचा हुमा है । इस अन्य को प्रोफेसर येवर ने सन १८६० में, जर्मनी में प्रकाशित किया है । इसमें हरिवंश के श्राद्ध-माहात्म्य में से “ सप्तन्याधा दशाणेपु० " (हरि. २४. २० और २१) इत्यादि श्लोक, तथा स्वयं महाभारत के भी कुछ अन्य श्लोक (उदाहरणार्थ ममा. शा २६१. १७), पाये जाते हैं । इलसे प्रगट होता है, कि शक संवत् से पहले हरिवंश को मिला कर वर्तमान लनश्लोकात्मक महाभारत प्रचलित था। (५) माधवायन गृह्यसूत्रों (३. ४.४) में भारत तथा महाभारत का पृथक पृथक् उल्लेख किया गया है और पौधायन धर्मसूत्र में एक स्थान (२.२.२६) पर महाभारत में वर्णित यवाति-उपाख्यान का एक श्लोक मिलता है (मभा. प्रा. ७८. १०)। परन्तु धूलर साहब का कथन है, कि केवल एक ही श्लोक के आधार पर यह अनुमान दृढ़ नहीं हो सकता, कि महाभारत बौधायन के पहले था यह शंका ठीक नहीं; क्योंकि बौधायन के गृहसून में विष्णुसहस्रनाम का स्पष्ट उल्लेख है (धौ. गृ. शे. १. २२.८), और आगे चल कर इसी सूत्र (२. २२, ६) में गीता का "प पुष्पं फलं तोयं० " श्लोक (गी. ६. २६) भी मिलता है। बौधायनसून में पाये जानेवाले इन बल्लेखों को पहले पहल परलोकवासी भ्यंबक गुरुनाथ काळे ने प्रकाशित किया था। इन सब उल्लेखों से यही कहना पड़ता है कि धूलर साहब की शंका निर्मूल है, और प्राधलायन तथा बौधायन दोनों ही महाभारत से परिचित थे। यूलर ही ने अन्य प्रमाणों से निश्चित किया है, कि बौधायन सन् ईसवी के लगभग ४०० वर्ष पहले हुआ होगा। (६) स्वयं महाभारत में जहाँ विष्णु के अवतारों का वर्णन किया गया है, वहीं बुद्ध का नाम तक नहीं है, और नारायणीयोपाख्यान (ममा. शां. ३३६. १००) में नहीं, दस अवतारों के नाम दिये गये हैं वहाँ ईस को प्रथम अदतार कह कर तथा कृष्ण के बाद ही एकदम कल्कि को ला कर पूरे दस गिना दिये हैं । परन्तु वनपर्व में कलियुग की भविष्यत् स्थिति का वर्णन करते समय कहा है, कि "एक- चिह्ना प्रथिवी न देहगृहभूषिता " (नमा.वन. १६०. ६८)-अर्थात् पृथ्वी

  • 500 Sacred Books of the East Series, Vol. XIV Intro. p.Xli.

परलोकवासी त्र्यंबक गुरुनाथ काळे का पूरा लेख edit agazine and Gurumula Samacher, Vol VII Nos 6, 7 pp. 528.532 में प्रकाशित हुआ है । इसमें लेखक का नाम प्रोफेसर काळे लिखा है, पर वह अशुद्ध है। गी.र.७१