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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६०४

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भाग ५-वर्तमान गतिा का फाल । ५६५ यही समय, प्रोफेसर पाठक द्वारा निश्चित किये हुए काल से, कहीं अधिक सयुक्तिक प्रतीत होता है । परन्तु, यहाँ पर उसके विषय में विस्तार-पूर्वक विवेचन नहीं किया जा सकता। गीता पर जो शाकरभाष्य है, इसमें पूर्व समय के अधिकांश टीका- कारों का उल्लेख किया गया है, और उक्त भाष्य के प्रारम्भ ही में श्रीशंकराचार्य ने कहा है, कि इन सब टीकाकारों के मतों का खंडन करके हमने नया भाप्य लिखा है। अतएव प्राचार्य का जन्म-काल चाहे शक ६१० लीजिये या ७१०, इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं कि उस समय के कम से कम दो तीन सौ वर्ष पहले, अर्थात् ४०० शक के जगभग, गीता प्रचलित थी। अब देखना चाहिये, कि इस काल के भी भौर पहले कैसे और कितना जा सकते हैं। (२) परलोकवासी तैलंग ने यह दिखलाया है, कि कालिदास और बाणभट्ट गीता से परिचित थे। कालिदासकृत रघुवंश (१०.३१) में विष्णु की स्तुति के विषय में जो "अनवातमवाप्तव्यं न ते किंचन विद्यते" यह श्लोक है, वह गीता के (३. २२) "नानवासमवातयं०" श्लोक से मिलता है। और याणमह की कादम्बरी के "महाभारतमिवानन्तगीताकर्णनानन्दिततरं" इस एक लेप प्रधान वाक्य में गीता का स्पष्ट रूप से उलेख किया गया है। कालिदास और भारवि का उल्लेख स्पष्ट रूप से संवत् ६ के एक शिलालेख में पाया जाता है। और अय यह भी निश्चित हो चुका है, कि बाणभट्ट संवत् ६६३ के लगभग हर्ष राजा के पास था। इस पात का विवेचन परलोकवासी पांडुरंग गोविंद शास्त्री पारखी ने बाणभट्ट पर लिखे हुए अपने एक मराठी निबन्ध में किया है। (३)जावा द्वीप में जो महाभारत ग्रंप यहाँ से गया है उसके भीम-पर्व में एक गीता प्रकरण है, जिसमें गीता के भिन भिन अध्यायों के लगभग सौ सवा सौ श्लोक अक्षरशः मिलते हैं। सिर्फ १२, १५, १६ और १७ इन चार अध्यायों के लोक उसमें नहीं हैं। इससे यह कहने में कोई आपत्ति नहीं देख पड़ती, कि उस समय भी गीता का स्वरूप वर्तमान गीता के स्वरूप के सदृश ही था। क्योंकि, कविभाषा में यह गीता का अनुवाद है और उसमें जो संस्कृत श्लोक मिलते हैं वे बीच-बीच में उदाहरण तथा प्रतीक के तौर पर ले लिये गये हैं। इससे यह अनु. मान करना युक्ति-संगत नहीं, कि उस समय गीता में केवल उतने ही श्लोक थे । जब डाक्टर नरहर गोपाल सरदेसाई जावा द्वीप को गये थे, तब उन्हों ने इस बात की खोज की है। इस विषय का वर्णन कलकत्ते के माडर्न रिव्यू नामक मासिक पत्र के जुलाई १९१४ के अंक में, तथा अन्यत्र भी, प्रकाशित हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है, कि शक चार-पाँच सौ के पहले कम से कम दो सौ वर्ष तक यहा- भारत के भीष्मपर्व में गीता थी और उसके श्लोक भी वर्तमान गीता श्लोकों के क्रमानुसार ही थे। (४) विष्णुपुराण, और पद्मपुराण आदि ग्रन्थों में भगवद्गीता के नमूने पर बनी हुई जो अन्य गीताएँ देख पड़ती हैं, अथवा उनके उल्लेख पाये जाते हैं, उनका