पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६१४

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भाग ६-गीता और बौद्ध ग्रंथ । वैय किया करता है, इसी प्रकार सांसारिक दुःख के रोग को दूर करने के लिये (३) उसके कारण को जान कर (४). उसी कारण को दूर करनेवाले मार्ग का अवलब बुद्धिमान् पुरुष को करना चाहिये । इन कारणों का विचार करने से देख पड़ता है कि तृप्या या कामना ही इस जगत् के सब दुःखों की जड़ है। और, एक नाम- रूपात्मक शरीर का नाश हो जाने पर बचे हुए इस वासनात्मक चीज ही से अन्यान्य नाम-रूपात्मक शरीर पुनः पुनः उत्पन्न हुआ करते हैं। और फिर बुद्ध ने निश्चित किया है कि पुनर्जन्म के दुःखमय संसार से पिण्ड छुड़ाने के लिये इन्द्रिय-निग्रह से, ध्यान से, तथा वैराग्य से तृष्णा का पूर्णतया क्षय करके संन्यासी या भिन्तु यन जाना ही एक यथार्थ मार्ग है, और इसी वैराग्य-युक्त संन्यास से अटल शांति एवं सुख प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है, कि यज्ञ-याग आदि की, तथा प्रात्म-अनात्म- विचार की झंझट में न पड़ कर इन चार दृश्य बातों पर ही बौद्ध-धर्म की रचना की गई है। ये चार यातें ये हैं:-सांसारिक दुःख का अस्तित्व, उसका कारण, उसके निरोध या निवारण करने की भावश्यकता, और उसे समूल नष्ट करने के लिये वैराग्यरूप साधन अथवा वौद की परिभाषा के अनुसार क्रमशः दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग । अपने धर्म के इन्ही चार मूलतत्वों को बुद्ध ने 'आर्य- सत्य' नाम दिया है । उपनिषद् के पात्मज्ञान के बदले चार आर्यसत्यों की श्य नांव के ऊपर यद्यपि इस प्रकार बौद्धधर्म खड़ा किया गया है तथापि अचल शांति या सुख पाने के लिये तृप्णा अथवा वासना का चय करके मन को निष्काम करने के जिस मार्ग (चौथे सत्य) का उपदेश घुद्ध ने किया है वह मार्ग, और मोव-प्राप्ति के लिये उपनिपदों में वर्णित मार्ग, दोनों वस्तुतः एक ही हैं, इसलिये यह बात स्पष्ट है कि दोनों धर्मों का अन्तिम दृश्य-साध्य मन की निविषय स्थिति ही है। परन्तु इन दोनों धर्मों में भेद यह है, कि ब्रम तथा प्रात्मा को एक मानने- वाले उपनिषत्कारों ने मन की इस निष्काम अवस्था को 'यात्मनिष्ठा', 'ब्रासंस्था', 'ग्राभूतता, 'ब्रह्मानिर्वाण' (गी. ५. १७–२५, छो. २. २३.१), अर्थात ब्रह्म में मात्मा का लय होना यादि अन्तिम आधार-दर्शक नाम दिये हैं, और बुद्ध ने उसे केवल 'निर्वाण' अर्थात् “विराम पाना, या दीपक युझ जाने के समान वासना का नाश होना" यह क्रिया-दर्शक नाम दिया है। क्योंकि, ब्रह्म या आत्मा को श्रम कह देने पर यह प्रश्न हीनहीं रह जाता, कि "विराम कौन पाता है और किसमें पाता " (सुत्तनिपात में रतनसुत्त १४ और वंगीससुत्त २२ तथा १३ देखो); एवं बुद्ध ने तो यह स्पष्ट रीति से कह दिया है, कि चतुर मनुष्य को इस गूढ़ प्रश्न का विचार भी न करना चाहिये (सब्बासवसुत्त ६-१३ और मिलिन्द प्रश्न. ४. २. ४ एवं ५ देखो)। यह स्थिति प्राप्त होने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता इसलिये एक शरीर के नष्ट होने पर दूसरे शरीर को पाने की सामान्य क्रिया के लिये प्रयुक्त होनेवाले ' मरण' शब्द का उपयोग बौद्धधर्म के अनुसार निर्वाण' के लिये किया भी नहीं जा सकता। निर्वाण तो 'मृत्यु की मृत्यु,' अथवा उपनिषदों के वर्णनानुसार मृत्यु को पार कर