पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६३८

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गीता के अध्यायों की श्लोकशः विषयानुक्रमणिका। [ नोट-इस अनुक्रमाणका में गीता के अध्यायों के विषयों के, श्लोकों के क्रम से, जो विभाग किये गये हैं, वेमूल संस्कृत श्लोकों के पहले इस चिन्ह से दिख- साये गये हैं और अनुवाद में ऐसे श्लोकों से अलग पैराग्राफ शुरू किया गया है।] पहला अध्याय-अर्जुनविषादयोग। १ समय से पृतराष्ट्र का प्रश्नं। २-११ दुर्योधन का द्रोणाचार्य से दोनों दलों की सेनाओं का वर्णन करना । १२-१६ युद्ध के प्रारम्भ ते परस्पर सलामी के लिये शंखध्वनि । २०-२७ अर्जुन का रथ आगे आने पर सैन्य-निरीक्षण । २८ -३७ दोनों सेनाओं में अपने ही बान्धव हैं, इनको मारने से कुलक्षय होगा-यह सोच कर अर्जुन को विपाद हुआ । ३८-४४ कुलक्ष्य प्रभृति पातकों का परिणाम । ४५ - ४७ युद्ध न करने का अर्जुन का निश्चय और धनुर्वाण-त्याग । पृ००६०७-६५७ दूसरा अध्याय-सांख्ययोग। 1-३ श्रीकृष्ण का उत्तेजन । ४-१० अर्जुन का उत्तर, कर्तव्य-मूढ़ता और धर्म-निर्णयार्थ श्रीकृष्ण के शरणापन्न होना । ११-१३ आत्मा का अशोच्यत्व । १४,१५देह और सुख-दुःख की अनित्यता। १६ - २५ सदसद्विवेक औरमात्मा के नित्य- त्वादि स्वरूप-कथन से उसके प्रशोच्यत्व का समर्थन । २६,२७ श्रात्मा के पनित्यत्व पक्ष को उत्तर । २८ सांख्यशास्त्रानुसार व्यक्त भूतों का अनित्यत्व और अशोच्यत्व । २९.३० लोगों को प्रात्मा दुर्जेय है सही; परन्तु तू सत्य ज्ञान को प्राप्त कर, शोक करना छोड़ दे ।३१-३८ क्षात्रधर्म के अनुसार युद्ध करने की मावश्यकता । ३६ सांख्य- मार्गानुसार विषय-प्रतिपादन की समाप्ति, और कर्मयोग के प्रतिपादन का प्रारम्भ । ४० कर्मयोग का स्वल्प आचरण भी क्षेमकारक है । ४१ व्यवसायात्मक बुद्धि की स्थिरता। ४२-४४ कर्मकाण्ड के अनुयायी मीमांसकों की आस्थिर बुद्धि का वर्णन । ४५, ४६ स्थिर और योगस्थ बुद्धि से कर्म करने के विषय में उपदेश । ४७ कर्मयोल की चतुःसूत्री । ४८-५० कर्मयोग का लक्षण और कर्म की अपेक्षा कर्ता की बुद्धि की श्रेष्ठता । ५५-५३ कर्मयोग से मोक्ष-प्रालि । ५४-७० अर्जुन के पूछने पर, कम- योगी स्थितप्रज्ञ के लक्षण और उसी में प्रसङ्गानुसार विषयासक्ति से काम आदि की उत्पत्ति का क्रम । ७१, ७२ ब्राही स्थिति। पृ.६८-६४६