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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६३९

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६०० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तीसरा अध्याय-कर्मयोग । १,२मर्जुन का यह प्रश्न कि कलों को छोड़ देना चाहिये, या करते रहना शाहिये सब क्या है १३-८ यद्यपि सांस्य (कर्मसंन्यास) भार कर्मयोग हो निष्टाएँ है, तो मी कर्म किसी से नहीं छुटने इसनिये कर्मयोग की श्रेष्ठता सिद्ध करके, मजुन को इसी के आचरण करने का निश्चित उपदेश । ६-१६ मीमांसकों के या कर्म को भी आशाति छोड़ कर करने का उपदेश, यज्ञबम का अनादित्व और जगत् के धारणायं उसकी मावश्या । 11-ज्ञानी पुरुष में स्वां नहीं होता, इसी लिये वह प्रात कों को निःस्वायं मयांद निष्कामादि से किया में श्योंकि उन किसी से भी नहीं छटने । २०-२४ जना मादि का उदाहरणलोक- संग्रहका महत्व और स्वयं भगवान् का इष्टान्त । ५-शानी मौर महानी के कमा में भेद, एवं यह भावश्यकता कि ज्ञानी मनुन्य निकाल कर्म करके अज्ञानी हो सदाचरण का मार्ग दिखलाये।३० ज्ञानी पुरुष के समान परमेश्वरानंग बुन्द से युद्ध करने का अर्जुन को उपदेश । ३१, ३१ भगवान् के इस देश के अनुसार प्रदापूर्वक क्ताव करने अयवा न करने का फल ! ३३, ३४ प्रकृति की प्रवक्ता और इन्द्रियनिग्रह । ३५ निष्कान कम भी स्वधन का ही करे, उसमें यदि मृत्यु हो जाय तो कोई परवा नहीं । ३६ - कान ही मनुष्य को उसकी इच्छा के विरुद पाप करने के लिये टकसाता है, इन्द्रिय-संचन से टसन नण । ४२, ४३ इन्द्रियों की श्रेष्टता का क्रम भार आत्मज्ञानपूर्वक उनका नियमन । पृ. ६४-६ चौथा अध्याय-झान-कर्म-संन्यास-योग। 1-३ कस्योग की सन्मदाय-परम्परा ! १-८ जन्मरहित परमेश्वर माया से दिल्य बन्न अयात् अवतार कब और किस लिये लेता है इसका वर्णन । ६ इस दिव्य जन्म का और कम का तत्व जान लेने से पुनर्जन्न हद कर नगवाति । १२अन्य रीति से नजे ने वैसा फल, उदाहरणार्य इस लोक के फल पाने के लिये देवताओं की उपासना ! ३-५ भगवान् के चानुर्वण्यं आदि नितंप कन, टन तत्व को जान लेने से कमंबध का नाम और वैये कम करने के लिये टरदेश। १६-९ कर्म, मर्म और विचमं का मेद, अकर्म ही निःसह कर्म है । वही सा कम है और उसी से कन्या का नाम होता है। २४-३३ अनेक प्रकार के लाच- मणक यज्ञों का वर्णन; और ब्रह्मबुदि से किय हुए यज्ञ की अयाद ज्ञान-यज्ञ की श्रेष्टता।३४-३६ ज्ञाता से ज्ञानोपदेश, ज्ञान से आभारच दृष्टि और पार-पुण्य का नाश !३-४० ज्ञान-प्राति के दाय, बुद्धि (योग) और श्रदा । इसके प्रभाव में ना !,१२ (कर्म) योग और ज्ञान का पृपा उपयोग बतज्ञा कर, इनों के मात्रय से युद्ध करने के लिये उपद्देश : १.६१-६८. पाँचवाँ अध्याय-सं 1, २ यह स्ष्ट प्रश्न कि, संन्यास श्रेष्ठ है या कमंपोग । इस पर भगवान् का ... 1