पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६४०

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गीता के विषयों की अनुक्रमणिका । यह निश्चित उत्तर कि मोक्षप्रद तो दोनों हैं, पर कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। ३-६ सापों को छोड़ देने से कर्मयोगी नित्यसंन्यासी ही होता है, और बिना कर्म के संन्यास भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये तत्त्वतः दोनों एक ही हैं। ७- -१३ मन सदैव संन्यस्त रहता है, और कर्म केवल इन्द्रियाँ किया करती हैं, इसलिये कर्मयोगी सदा अलिस, शान्त और मुक्त रहता है । १४, १५ सचा कर्तृत्व और भोक्तत्व प्रकृति का है, परन्तु अज्ञान से आत्मा का अथवा परमेश्वर का समझा जाता है । १६, १७ इस अज्ञान के नाश से, पुनर्जन्म से छुटकारा । १८-२३ ब्राह्मज्ञान से पास होने. वाले समदर्शित्व का, स्थिर बुद्धि का और सुख-दुःख की क्षमता का वर्णन। २४-२८ सर्वभूतहितार्थ कर्म करते रहने पर भी कर्मयोगी इसी लोक में सदैव ब्रह्मभूत, समाधिस्य और मुक्त है । २६ (कर्तृत्व अपने ऊपर न लेकर ) परमेश्वर को यज्ञ-तप का भोक्ता और सब भूतों का मित्र जान लेने का फल ।...पृ०६८७-६८६ छठा अध्याय-ध्यानयोग । १, २ फलाशा छोड़ कर कर्त्तव्य करनेवाला ही सच्चा संन्यासी और योगी है। संन्यासी का अर्थ निरग्नि और पाक्रिय नहीं है। ३, ४ कर्मयोगी की साधनावस्था में और सिद्धावस्था में शम एवं कर्म के कार्यकारण का बदल जाना तथा योगा- रूढ़ का लक्षण । ५, ६ योग को सिद्ध करने के लिये प्रात्मा की स्वतन्त्रता । ७-६ जितात्म योगयुक्तों में भी समवृद्धि की श्रेष्ठता । १०-१७ योग-साधन के लिये आवश्यक प्रासन और आहार-विहार का वर्णन । १८-२३ योगी के, और योग- समाधि के, आत्यन्तिक सुख का वर्णन । २४ -२६ मन को धीरे-धीरे समाधिस्थ शान्त और आत्मनिष्ठ कैसे करना चाहिये? २७, २८ योगी ही ब्रह्मभूत और अत्यन्त सुखी है । २९-३२ प्राणिमात्र में योगी की आत्मौपम्यबुद्धि । ३३-३६ अभ्यास और वैराग्य से चञ्चल मन का निग्रह । ३७-४५ अर्जुन के प्रश्न करने पर, इस विषय का वर्णन कि, योगभ्रष्ट को अथवा जिज्ञासु को भी जन्म-जन्मान्तर में उत्तम फल मिलने से अन्त में पूर्ण सिद्धि कैसे मिलती है। ४६, ४७ तपस्वी, ज्ञानी, और निरे कर्मी की अपेक्षा कर्मयोगी और उसमें भी भक्तिमान् कर्मयोगी-श्रेष्ठ है। अतएव अर्जुन को (कर्म-योगी होने के विषय में उपदेश । ...पृ. ६९६-७१५॥ सातवाँ अध्याय-ज्ञान-विज्ञानयोग। १-३ कर्मयोग की सिद्धि के लिये ज्ञान-विज्ञान के निरूपण का आरम्भ । सिद्धि के लिये प्रयत्न करनेवालों का कम मिलना । ४-७ चराचरविचार । भगवान् की अष्टधा अपरा और जीवरूपी परा प्रकृति, इससे आगे सारा विस्तार | ८-१२ विस्तार के सात्विक आदि सब भागों में गुंथे हुए परमेश्वर-स्वरूप का दिग्दर्शन । १३-१५ परमेश्वर की यही गुणमयी और दुस्तर माया है, और उसी के शरणागत होने पर माया से उद्धार होता है । १६-१८भक चतुर्विध हैं। इनमें ज्ञानी श्रेष्ठ है। अनेक जन्मों से ज्ञान की पूर्णता और भगवत्प्राप्तिरूप नित्य फल । २०- गी. र. ७६