पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६६३

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गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । | का तत्व उपयुक्त होता है । प्रस्तुत लोक में इस प्रकार का मन नहीं है, वन्य इतना ही है, कि सत् अर्थात् जो है, उसका अस्तित्व (माव) और असत निर्यात् जो नहीं है उसका अमाव, ये दोनों नित्य यानी सब कायम रहनेवाले है। इस प्रकार क्रम से दोनों के भाव-अमाव को नित्य मान लें तो मागे फिर आप ही आप कहना पड़ता है, कि जो 'सत्' है उसका नाश हो कर, उसी का "असद नहीं हो जाता । परन्तु यह अनुमान, और सत्कार्य-वाद में पहने ही ग्रहण की हुई एक वस्तु से दूसरी वस्तु की काय कारणरूप उत्पत्ति, ये दोनों एक सी नहीं हैं (गी. र.प्र.७ पृ. १५६ देखो)माष्वमान्य में इस लोक के 'नासतो विद्यते भाव इस पहले चरण के 'विद्यते भाव का विद्यतेमभावः' ऐसा पदच्छेद है और उसका यह अयं किया है कि असद यानी अव्यक प्रकृति का अनाव, अर्थात् नाश नहीं होता । और जबकि दूसरे चरण में, यह कहा है कि सद का भी नाश नहीं होता, तब अपने द्वैती सम्प्रदाय के अनुसार मव्वाचार्य ने इस लोक का ऐसा अर्य किया है कि सत् और प्रसव दोनों नित्य !! परनु यह अर्थ सरन नहीं है, इसमें खींचातानी है। क्योंकि स्वाभाविक रीति से देख पड़ता है, कि परस्पर-विरोधी असत् और सत् शब्दों के समान ही अमाव और भाव ये दो विरोधी शब्द भी इस स्थल पर प्रयुक्त हैं। पुर्व दूसरे चरण में अर्थात् ' नानावो विद्यते सतः' यहाँ पर नामावो में यदि अमाव शब्द ही लेना पड़ता है, तो प्रगट है कि पहले चरण में मात्र शब्द ही रहना चाहिये । इसके अतिरिका यह कहने के लिये, कि असद और सत् वे दोनों नित्यं हैं, 'अमाव' और 'विद्यते । इन पदों के दो यार प्रयोग करने की कोई प्राव- श्यक्ता न थी। किन्तु मध्वाचार्य के कथनानुसार यदि इस द्विरुक्ति को आदरार्थक सानं मी लें, तो आगे अठारहवें श्लोक में स्पष्ट कहा है कि व्यक या दृश्य सृष्टि में भानेवाला मनुष्य का शरीर नाशवान् अर्थात् अनित्य है । अतएव आत्मा के साथ ही साथ नगवद्गीता के अनुसार, देह को भी नित्य नहीं मान सकते प्रगट रूप से सिद्ध होता है, कि पुक नित्य है और दूसरा अनित्य । पाठकों को चिह दिखलाने के लिये, कि साम्प्रदायिक दृष्टि से कैसी खींचातानी की जाती है, हमने नमूने के हँग पर यहाँ इस श्लोक का मध्वमाण्यवाला अर्थ लिख दिया है। अस्तु जो सत् है वह कभी नष्ट होने का नहीं, अतएव सत्वरूपी आत्मा का शोक न करना चाहिये और ताव की दृष्टि से नामरूपात्मक देह श्रादि अयवा सुख-दुःख प्रादि विकारं नृल में ही विनाशी है, इसलिये उनके नाश होने का शिोक करना भी उचित नहीं। फलतः बारम्न में अर्जुन से जो यह कहा है कि "जिसका शोक न करना चाहिये, उसका शोक कर रहा है। वह सिद्ध हो गया। सब 'सत्' और 'सत्'त्रयों को दी अगले दोश्लोकों में और भी स्पष्ट कर बतलाते हैं-]]