गीतारहस्य अवथा कर्मयोगशास्त्र । यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके । गुण्य कहते हैं। यह सृष्टि सुख-दुःख प्रादि अथवा जन्म-मरण आदि विनाश- चान् द्वन्द्वों से भरी हुई है और सत्य ब्रह्म इसके परे है-यह वात गीतारहस्य (पृ. २२८ और २५५) में स्पष्ट कर दिखलाई गई है। इसी अध्याय के ४३ वें लोक में कहा है, कि प्रकृति के, अर्थात् माया के, इस संसार के सुखों की प्राप्ति के लिये मीमांसक मार्गवाले लोग श्रौत यज्ञ-याग भादि किया करते हैं और वे इन्हों में निमग्न रहा करते हैं। कोई पुत्र-प्राप्ति के लिये एक विशेष यज्ञ करता है, तो कोई पानी बरसाने के लिये दूसरी इष्टि करता है । ये सब कर्म इस लोक में संसारी घ्यवहारों के लिये अर्थात् अपने योग-क्षेम के लिये एव प्रगट ही है, कि जिसे मोक्ष प्रात करना हो, वह वैदिक कर्मकाण्ड के इन त्रिगुणात्मक और निरे योग-क्षम सम्पादन करानेवाले कर्मों को छोड़ कर अपना चित्त इसके परे पस्ना की ओर लगावे । इसी अर्थ में निर्द्वन्द्व और नियोगक्षेम- वान् शब्द ऊपर आये हैं। यहाँ ऐसी शङ्का हो सकती है, कि वैदिक कर्मकाण्ड के इन काम्य कर्मों को छोड़ देने से योग-क्षेम (निर्वाह) कैसे होगा (गी. र. पृ. २९३ और ३८४ देखो)। किन्तु इसका उत्तर यहाँ नहीं दिया, यह विषय मागे फिर नवें अध्याय में आया है, वहाँ कहा है कि इस योग-चेम को भग- वान् करते हैं और इन्हीं दो स्थानों पर गीता में, योगक्षेम' शब्द आया है (गी. ६. २२ और उस पर इमारी टिप्पणी देखो)। नित्यसत्त्वस्थ पद का ही अर्थ त्रिगुणातीत होता है। क्योंकि आगे कहा है, कि सत्त्वगुण के नित्य उत्कर्ष से ही फिर त्रिगुणातीत भवस्था प्राप्त होती है, जोकि सच्ची सिद्धावस्था है (गी. १४. १४ और २०, गी. र. पृ. १६६ और ६७ देखो)। तात्पर्य यह है कि मीमांसकों के योगक्षेमकारक त्रिगुणात्मक काम्य कर्म छोड़ कर एवं सुखदुःख के द्वन्द्वों से निबट कर ब्रह्मनिष्ठ अथवा आत्मनिष्ट होने के विषय में यहाँ उपदेशं किया गया है। किन्तु इस बात पर फिर भी ध्यान देना चाहिये, कि आत्मनिष्ठ होने का अर्थ सब कर्मों को स्वरूपतः एकदम छोड़ देना नहीं है। ऊपर के श्लोक में वैदिक काम्य कर्मों की जो निन्दा की गई है या जो न्यूनता दिखनाई गई है, वह कर्मों की नहीं, बल्कि उन कर्मों के विषय में जो काम्यबुद्धि होती है, उस की है। यदि यह काम्यवृद्धि मन में न हो, तो निरे यज्ञ-याग किसी भी प्रकार से मोक्ष के लिये प्रतिवन्धक नहीं होते (गी. र. पृ. २९२-२६५)। मागे अठारहवें अध्याय के प्रारम्भ में भगवान् ने अपना निश्चित और उत्तम मत वत- माया है, कि मीमांसकों के इन्हीं यज्ञ-याग आदि कर्मों को फलाशा और सङ्ग छोड़ कर चित्त की शुद्धि और लोकसंग्रह के लिये अवश्य करना चाहिये (गी. ८.६) गीता की इन दो स्थानों की वातों को एकत्र करने से यह प्रगट हो जाता है, कि इस अध्याय के श्लोक में मीमांसकों के कर्मकाण्ड की जो न्यूनता दिखलाई गई है, वह उसकी काम्यवृद्धि को उद्देश करके ई-क्रिया
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