पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६७४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-२ अध्याय । तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥ के लिये नहीं है। इसी अभिप्राय को मन में ला कर भागवत में भी कहा है- वेदोकमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽर्पितमविरे। नष्काम्या लभते सिद्धिं रोचनार्या फलश्रुतिः॥ "वेदोक्त कर्मों की वेद में जो फलश्रुति कही है, वह रोचनार्थ है, अर्थात् इसी लिये है कि कर्ता को ये कर्म अच्छे लगें। अतएव इन फर्मों को उस फज-प्राप्ति के लिये न करे, किन्तु निःसङ्ग बुद्धि अर्थात् फल की आशा छोड़ कर ईश्वरार्पण घुद्धि से करे । जो पुरुप ऐसा करता है, उसे नष्कम्यं से प्राप्त होनेवाली सिद्धि मिलती है" (भाग. ११.३, ४६) | सारांश, यद्यपि वेदों में कहा है कि अमुक अमुक कारणों के निमित्त यज्ञ करे, तथापि इसमें न भूल कर केवल इसी लिये यज्ञ करे कि वे यष्टव्य हैं अर्थात् यज्ञ करना अपना कर्तव्य है काम्यबुद्धि को तो छोड़ दे, पर यज्ञ को न छोड़े (गी. १७, ११); और इसी प्रकार अन्यान्य कर्म भी किया करे-यह गीता के उपदेश का सार है और यही अर्थ अगले श्लोक में व्यक्त किया गया है। (६) चारों ओर पानी की बाढ़ भा जाने पर कुएँ का जितना अर्थ या प्रयोजन रह जाता है (अर्थात कुछ भी काम नहीं रहता), उतना ही प्रयोजन ज्ञान-प्राप्त धामण को सव (फर्मकापडात्मक) वेद का रहता है (अर्थात सिर्फ काम्यकर्मरूपी पैदिक कर्मकाण्ड की उसे कुछ प्रावश्यकता नहीं रहती)। । [इस श्लोक के फलितार्थ के सम्बन्ध में मतभेद नहीं है। पर टीका- कारों ने इसके शब्दों की नाहक खींचातानी की है। सर्वतः संप्लुतोदके यह सतम्यन्त सामासिक पद है। परन्तु इसे निरी सक्षमी या उदपान का विशेषण भी न समझ कर 'सति सप्तमी मान लेने से, " सर्वतः संप्लुतोदके सति उदपाने यावानर्थः (न स्वल्पमपि प्रयोजनं विद्यते) तावान् विजानतः प्राह्मणस्य सर्वेषु वेदेषु अर्थ:"--इस प्रकार किसी भी बाहर के पद को मध्याहृत मानना नहीं पड़ता, सरल अन्यय लग जाता है और उसका यह सरल अर्थ भी हो जाता है, कि चारों ओर पानी ही पानी होने पर (पीने के लिये कहीं भी बिना प्रयत्न यथेष्ट पानी मिलने लगने पर) जिस प्रकार कुएँ को कोई भी नहीं पूछता, उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त पुरुष को यज्ञ-याग आदि केवल वैदिककर्म का कुछ भी उपयोग नहीं रहता। क्योंकि, वैदिककर्म केवल स्वर्ग-प्राप्ति के लिये ही नहीं, बल्कि अन्त में मोक्षसाधक ज्ञान-प्राप्ति के लिये करना होता है, और इस पुरुष को तो ज्ञान-प्राप्ति पहले ही हो जाती है, इस कारण इसे वैदिककर्म करके कोई नई वस्तु पाने के लिये शेप रह नहीं जाती । इसी हेतु से आगे तीसरे अध्याय (३. १७) में कहा है, कि "जो ज्ञानी हो गया, उसे इस जगत् में कर्त्तव्य शेष नहीं रहता। बड़े भारी तालाब या नदी पर अनायास ही, जितना चाहिये