गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 88 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । उतना, पानी पीने की सुविधा होने पर कुएं की ओर कौन झाँकगा? ऐसे समय कोई भी कुएँ की अपेक्षा नहीं रखता । सनत्सुजातीय के अन्तिम अध्याय (ममा. उद्योग. ४५. २६) मैं यही श्लोक कुछ थोड़े से शब्दों के हेरफेर से आया है। माधवाचार्य ने इसकी टोका में वैसा ही अर्थ किया है, जैसा कि हमने ऊपर किया है। एवं शुकानुप्रश्न में ज्ञान और कर्म के तारतम्य का विवेचन करते समय साफ़ कह दिया है:-" न ते (ज्ञानिनः) कर्म प्रशंसन्ति कूप नद्यां पियन्निव"- अर्थात् नदी पर जिसे पानी मिलता है, वह जिस प्रकार कुएँ की परवा नहीं करता, उसी प्रकार 'ते' अर्थात् ज्ञानी पुरुष कर्म की कुछ परवा नहीं करते (ममा. शां. २४०. १०)। ऐसे ही पाण्डवगीता के सत्रहवें श्लोक में कुएं का दृष्टान्त यों दिया है। जो वासुदेव को छोड़ कर दूसरे देवता की उपासना करता है, वह "तृपितो जान्हवीतीरे कूपं वाञ्छति दुर्मतिः" भागीरथी के तट पर पीने के लिये पानी मिलने पर भी कुएँ की इच्छा करनेवाले प्यासे पुरुष के समान मूर्ख है । यह दृष्टान्त केवल वैदिक संस्कृत ग्रन्थों में ही नहीं है, प्रत्युत पाली के बौद्ध अन्यों में भी इसके प्रयोग हैं। यह सिद्धान्त बौद्धधर्म को भी मान्य है, कि जिस पुरुष ने अपनी तृष्णा समूल नष्ट कर डाली हो, उसे आगे और कुछ प्राप्त करने के लिये नहीं रह जाता; और इस सिद्धान्त को बतलाते हुए उदान नामक पानी अन्य के (७.६) इस श्लोक में यह दृष्टान्त दिया है कि कयिरा जदपानेन आपा चे सब्बदा सियुम् "-सर्वदा पानी मिलने योग्य हो जाने से कुएं को लेकर क्या करना है। आजकल बड़े-बड़े शहरों में यह देखा ही जाता है, कि घर में नल हो जाने से फिर कोई कुएं की परवा नहीं करता । इससे और विशेष कर शुकानुप्रश्न के विवेचन से गीता के दृष्टान्त का स्वारस्य ज्ञात हो जायगा और यह देख पड़ेगा, कि हमने इस श्लोक का ऊपर जो अर्थ किया है, वही सरल और ठीक है। परन्तु, चाहे इस कारण से हो कि ऐसे अर्थ से विदों को कुछ गौणता आ जाती है, अथवा इस साम्प्रदायिक सिद्धान्त की और दृष्टि देने से हो कि ज्ञान में ही समस्त कर्मों का समावेश रहने के कारण ज्ञानी को कर्म करने की ज़रूरत नहीं, गीता के टीकाकार इस श्लोक के पदों का अन्वय कुछ निराले ढंग से लगाते हैं। वे इस श्लोक के पहले चरण में 'तावान्' और दूसरे चरण में 'यावान् ' पदों को अध्याहृत मान कर ऐसा अर्थ लगाते !" उदपाने यावानर्थः तावानेव सर्वतः संप्लुतोदके यथा सम्पद्यते तथा यावान्सर्वेषु वेदेषु अर्थः तावान् विजानतः ब्राह्मणस्य सम्पद्यते " अर्थात् स्नान- पान आदि कमों के लिये कुएँ का. जितना उपयोग होता है, उतना ही बड़े तालाब में (सर्वतः संप्लुतोके) भी हो सकता है। इसी प्रकार वेदों का जितना उपयोग है, उतना सब ज्ञानी पुरुप को उसके ज्ञान से हो सकता है। परन्तु इस अन्वय में पहली श्लोक-पंक्ति में 'तावान् ' और दूसरी पंकि में 'यावान्' इन
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