गीता, अनुवाद और टिप्पणी- २ अध्याय । मा कर्म फलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्माण ॥४७॥ {दो पदों के अध्याहार कर लेने की आवश्यकता पड़ने के कारण हमने उस अन्वय और अर्थ को स्वीकृत नहीं किया । हमारा अन्वय और अर्थ किसी भी पद के अध्याहार किये बिना ही लग जाता है और पूर्व के श्लोक से सिद्ध होता है, कि इसमें प्रतिपादित वेदों के कोरे (अर्थात् ज्ञानव्यतिरिक्त कर्मकाण्ड का गौणत्व इस स्थल पर विवक्षित है। अब ज्ञानी पुरुप को यज्ञ याग प्रादि कर्मों की }कोई आवश्यकता न रह जाने से कुछ लोग जो यह अनुमान किया करते हैं, कि इन कमी को ज्ञानी पुरुपे न करे, बिलकुल छोड़ दे यह बात गीता को सम्मत नहीं है। क्योंकि, यद्यपि इन कर्मों का फल ज्ञानी पुरुष को अभीष्ट नहीं तथापि फिल के लिये न सही, तो भी यज्ञ-याग सादि कर्मों को, अपने शास्त्रविहित कर्तव्य समझ कर, वह कभी छोड़ नहीं सकता। अठारहवें अध्याय में भगवान् ने अपना निश्चित मत स्पष्ट कह दिया है, कि फलाशा न रहे, तो भी अन्यान्य निष्काम कर्मों के अनुसार यज्ञ-याग प्रादि कर्म भी ज्ञानी पुरुप को निःसा बुद्धि से करना क्षी चाहिये (पिछले श्लोक पर और गी. ३. १६ पर हमारी जो टिप्पणी है, उसे देखो) । यही निष्काम-विषयक अर्थ अब अगले श्लोक में व्यक्त कर दिखनाते हैं- (४७) कर्म करने मात्र का तेरा अधिकार है। फ़ल (मिलना या न मिलना) फमी भी तेरे अधिकार अर्थात ताबे में नहीं; (इसलिये मेरे कर्म का) अमुक फल मिले, यह हेतु (मन में) रख कर काम करनेवाला न हो; और कर्म न करने का भी तू भाग्रह न कर। [इस श्लोक के चारों चरण परस्पर एक दूसरे के अर्थ के पूरक हैं, इस कारण प्रतियासि न हो कर कर्मयोग का सारा रहस्य थोड़ें में उत्तम रीति से पतला दिया गया है । और तो क्या, यह कहने में भी कोई हानि नहीं, कि ये चारों चरण कर्मयोग की चतुःसूती ही हैं । यह पहले कह दिया है, कि कर्म करने मात्र का तेरा अधिकार है " परन्तु इस पर यह शक्षा होती है, कि कर्म का फल कर्म से ही संयुक्त होने के कारण 'जिसका पेड़, उसी का फल' इस न्याय से जो कर्म करने का अधिकारी है, वही फल का भी अधिकारी होगा। अतएव इस शंका को दूर करने के निमित्त दूसरे चरण में स्पष्ट कह दिया है कि "फल में तेरा अधिकार नहीं है। फिर इससे निप्पल होनेवाला तीसरा यह सिद्धान्त बतलाया है, कि " मन में फलाशा रख कर कर्म करनेवाला मत हो ।" (कर्मफलहेतुः कर्मफले हेनुर्यस्य स कर्मफलहेतुः, ऐसा. बहुचीहि समास होता है)। परन्तु कर्म और उसका फल दोनों संलग्नं होते हैं, इस कारण यदि कोई ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादन करने लगे, कि फलाशा के साथ ही साथ फल को भी छोड़ ही देना चाहिये, तो इसे भी सच न मानने के लिये अन्त में स्पष्ट उपदेश किया है, कि फलाशा को तो छोड़ दे, पर इसके साथ ही कर्म नं करने का
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