कर्मजिज्ञासा। ३१ वह भी टल सकता है (ममा. शां. ३३७, अनु. ११५. ५६) । तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सय स्थानों में जो लैकड़ों जीव-जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है? महाभारत में (शां. १५. २६) अर्जुन कहता है:- सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित् । पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः ।। इस जगत में ऐसे ऐसे सून्म जन्तु है कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों के पलक हिलावे उतने ही से उन जन्तुओं का नाश हो जाता है "! ऐसी अवस्या में यदि हम मुख से कहते रहे कि "हिंसा मत करो, हिंसा मत करो" तो उससे क्या लाभ होगा? इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में (अनु. ११६) शिकार करने का समर्थन किया गया है । वनपर्व में एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिव्रता रखी को भस्म कर डालना चाहता था परन्तु जब उसका यत्न सफल नहीं हुआ तब वह खी की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिये उस ग्रामण को उस स्त्री ने किसी व्याधा के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने माता-पिता का बड़ा भक्त ! इस व्याध का यह व्यवसाय देख कर बामण को अत्यन्त विस्मय और खेद हुमा । तय व्याध ने उसे अहिंसा का सचा तत्व समझा कर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता?" जीयो जीवस्य जीवनम् " (भाग. १.१३.४६) यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपत्काल में तो "प्रायास्यामिदं सर्वम् " यह नियम सिर्फ स्मृति- कारों ही ने नहीं (मनु. ५. २८ मभा. शां. १५.२१) कहा है, किंतु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा गया है (पैसू. ३.४.२८,छो.५.२.१.६. १. १४)। यदिसब लोग हिंसा छोड़ दे तो वाधर्म कहाँ और कैसे रहेगा? यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो जाय तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी? सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों ही से सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम-अहिंसा में भी कर्तव्य- अकर्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है। अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति प्रादि गुण शात्रों में कहे गये हैं; परन्तु सय समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा? सदा शान्त रहनेवाले मनुष्यों के बाल-बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किये विना नहीं रहेंगे । इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रल्हाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा है:- न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा । तस्मानित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता ।। सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता । इसी लिये,
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