पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-३ अध्याय । ६५१ . नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो हकर्मणः। शरीरयात्रापि च तेन प्रसिद्धयेदकर्मणः॥८॥ योग्यता का या श्रेष्ट है (गीतार. पृ. ३०७ -३०८)। इस प्रकार जय कर्मयोग ही श्रेष्ठ है, तव अन को इसी मार्ग का आचरण करने के लिये उपदेश करते है-] (6)(अपने धर्म के अनुसार) नियत अर्थात् नियमित कर्म को तू घर, क्योंकि कर्म म करने की अपेक्षा, कर्म करना कहीं अधिक अच्छा है। इसके अतिरिक्त(यह समझ जे कि यदि ) तू कर्म न करेगा, तो (भोजन भी न मिलने से) तेरा शरीर-निर्वाह तक न हो सकेगा। [' अतिरिक्त ' और 'तक' (अपि च ) पदों से शरीरयात्रा को कम से कम हेतु कहा है। अब यह बतलाने के लिये यज्ञ-प्रकरण का प्रारम्भ किया जाता है, कि 'नियत अर्थात् ' नियत किया हुआ फर्म ' कौन सा है और दूसरे किस महत्व के कारण उसका आचरण अवश्य करना चाहिये । आजकल यज्ञ- याग मादि श्रीरधर्म लुप्त सा हो गया है, इसलिये इस विषय का आधुनिक पाठकों को कोई विशेष महत्व मालूम नहीं होता। परन्तु गीता के समय में इन यज्ञ-यागों का पूरा पूरा प्रचार था और 'कर्म' शब्द से मुख्यतः इन्हीं का योध दुआ करता थाअतएव गीताधर्म में इस बात का विवेचन करना अत्यावश्यक था कि ये धर्मकृत्य किये जावें या नहीं, और यदि किये जावें तो किस प्रकार । इसके सिवा, यह भी स्मरण रहे कि यज्ञ शब्द का अर्थ केवल ज्योतिष्टोम आदि श्रीतयज्ञ या अग्नि में किसी भी वस्तु का हवन करना ही नहीं है (देखो गी. ४, १३२) । सृष्टि-निर्माण करके उसका काम ठीक ठीक चलते रहने के लिये, अर्थात् लोकसंग्रहार्थ, प्रजा को प्रामा ने चातुर्वरायविहित जो जो काम बाँट दिये हैं, उन सब का 'यज्ञ' शब्द में समावेश होता है (देखो म. भा. अनु. ४८.३० और गी. २. पृ. २८९-२६५) । धर्मशास्त्रों में इन्हों कर्मों का उल्लेख है और यह "नियत' शब्द से वे ही विवक्षित हैं। इसलिये कहना चाहिये कि यद्यपि प्राज- कल यज्ञ-याग लुप्तप्राय हो गये हैं. तथापि यज्ञ-चक्र का यह विवेचन अब भी निरर्थक नहीं है। शास्त्रों के अनुसार ये सब फर्म काम्य हैं, अर्थात् इसलिये बता. लाये गये हैं कि मनुष्य का इस जगत में कल्याण होवे और उसे सुख मिले । परन्तु पीछे दूसरे अध्याय (गी. २. ४१-४४) में यह सिद्धान्त है कि मीमांसको के ये सहेतुक या काम्यकर्म मोक्ष के लिये प्रतिबन्धक हैं, अतएंव वे नीचे दर्जे के हैं। और मानना पड़ता है कि अब तो उन्हीं कर्मों को करना चाहिये इसालये। अगले श्लोकों में इस बात का विस्तृत विवेचन किया गया है कि कर्मों का शुभाशुम लेप अथवा बन्धकत्व कैसे मिट जाता है और उन्हें करते रहने पर भी नैष्कर्म्यावस्था क्योंकर प्राप्त होती है। यह समग्र विवेचन भारत में वर्णित नारायणीय या भाग- चतधर्म के अनुसार है (देखो म. भा. शां.३४०)।]