गीता, अनुवाद और टिप्पणी - ३ अध्याय । ६५७ न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥१८॥ तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्मसमाचर। उसका कुछ भी (निजी) मतलप पटका नहीं रहता । (18) तस्मात अर्यात अब ज्ञानी पुरुष इस प्रकार कोई भी पेक्षा नहीं ररस्ता तब, तू भी (फल की) मासक्ति जोड़ कर अपना फत्तत्य कर्म सदैव किया कर; क्योंकि आसक्ति छोड़ कर फर्म करनेवाले मनुष्य को परमगति प्राप्त होती है। i [१७ से १६ तक के लोकों का टीकाकारों ने यहुत विपर्यास कर डाला है, इसलिये हम पहले उनका सरल भावार्थ ही यतलाते हैं। तीनों श्लोक मिल कर हेतु-मनुमान-मुक्त एक ही वाश्य है । इनमें से १७ च पोर लोकों में पहले इन कारणों का उलेख किया गया है कि जो साधारण रीति से ज्ञानी पुरुप के कर्म न करने के विषय में बतलाये जाते हैं और इन्ही कारणों से गीता ने जो अनुमान निकाला है यह ६ वें श्लोक में कारण-योधक · तस्मात् ' शब्द का प्रयोग करके, बतलाया गया है । इस जगत में सोना, यैठना, उठना या जिन्दा रहना भादि सय फी को, कोई पोड़ने की इजा करे, तो ये छूट नहीं सकते। अतः इस अध्याय के प्रारम्भ में, चौधे सौर पाँचवें श्लोकों में, स्पष्ट कह दिया गया कि फर्म को छोड़ देने से न तो नकार्य होता है और न यह सिद्धि प्राप्त करने का उपाय ही है। परन्तु इस पर संन्यास मार्गवालों की यह दलील है कि "हम कुछ सिदि प्राह करने के लिये कर्म करना नहीं छोड़ते हैं। प्रत्येक मनुष्य इस जगत में जो कुछ करता है, वह अपने या पराये लाभ के लिये ही करता है, किन्तु मनुष्य का स्वकीय परमसाध्य सिद्धावस्था अथवा मोन है और वह ज्ञानी पुरुष को उसके ज्ञान से प्राप्त हुमा करता है, इसलिये उसको ज्ञानप्राप्ति हो जाने पर कुछ प्राप्त करने के लिये नहीं रहता (लोक १७) । ऐसी अवस्था में, चाहे वह कर्म करे या न करे-उसे दोनों बातें समान हैं। अच्छा; यदि कहें कि उसे लोकोपयोगार्य फर्म करना चाहिये, तो उसे लोगों से भी कुछ लेना-देना नहीं (लो. १८)। फिर वह कर्म करे ही क्यों"? इसका उत्तर गीता या देती है कि, जब कर्म करना और न करना तुम्हें दोनों एक से हैं, तय कर्म न करने का ही इतना इछ तुम्हें क्यों है ? जो कुछ शाम के भनुसार प्राप्त होता जाय, उसे माग्रह-विहीन पुद्धि से करके छुटी पाजाम । इस जगत में कर्म किसी से भी छूटते नहीं , फिर चाहे वह ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी । अब देखने में तो यह बड़ी जटिल समस्या जान पड़ती है, कि कर्म तो छूटने से रहे और ज्ञानी पुरुष को स्वयं अपने लिये उनकी प्रावश्यकता नहीं ! परन्तु गीता को यह समस्या कुछ कठिन नहीं जंचती । गीता का कपन यह है कि जब कर्म छूटता है ही नहीं, तब उसे करना ही चाहिये । किन्तु अब स्वार्थबुद्धि न रहने से उसे निःस्वार्थ अर्थात निष्काम पुद्धि से किया करो । १९वें श्लोक में 'तस्मात् ' पद का प्रयोग करके यही उपदेश अर्जुन को किया गया है एवं इसकी पुष्टि में भागे गी.र.८३
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९६
दिखावट