पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१३

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६७४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ss चातुर्वण्ये मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥ न मां कर्माणि लिपन्ति न मे कर्मफलं स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्ममिन स वद्धयते ॥ १४॥ एवं शात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । भावार्य यह है कि यहुतेरों को तो अपने उद्योग प्रांत कर्म से इसी लोक में कुछ न कुछ प्रान करना होता है, और ऐसे ही लोग देवताओं की पूजा किया करते हैं (गीतार. पृ० १२२ देखी) गीता का यह भी कयन है, कि पयाय से यह भी तो परमेश्वर का ही पूजन होता है और बढ़ते बढ़ते इस योग का पर्यवसान निकांन मक्ति में होकर अन्त में मोक्ष प्राप्त हो जाता है (गी. ७. ६) पहने कह चुके हैं कि धर्म की संस्थापना करने के लिये परमेश्वर अवतार लेता है, भव संक्षेप में बतलाते हैं, कि धर्म की संस्थापना करने के लिये पंयां करना पड़ता है-] (३) (बाह्मण, वत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकार) चारों वणों की व्यवस्था गुण और कर्म के भेद से मैंने निर्माण की है । इसे तू ध्यान में रख, कि मैं उसका कर्ता मी हूँ और ममता मर्याद उसे न करनेवाला भव्यय (मैं ही) हूँ। i [अर्थ यह है कि परमेश्वर का मने ही हो, पर अगले श्लोक के वर्णना- नुसार वह सदैव निःसन है, इस कारण अकता ही है (गी. ५. ३४ देखो)। परमेश्वर के स्वरूप के 'सन्द्रियगुणामास सर्वेन्द्रियविर्जितम् । ऐसे दूसरे भी विरोधामात्सात्मक वर्णन है (गी. ३. १४)। चातुर्वण्य के गुण और भेद का निरूपण आगे अठारहवें अध्याय (८.१-४६) में किया गया है। अव भग- वान् ने "करके न करनेवाली " ऐसा जो अपना वर्णन किया है, उसका मर्म बत- लाते हैं- (12) मुझे कर्म का लेप अर्थात याचा नहीं होती; (क्योंकि) कर्म के फल में मेरी इच्छा नहीं है । जो मुझे इस प्रकार जानता है, उसे कर्म की बाधा नहीं होती। । [अपर नवम श्लोक में जो दो बात कही है कि मेरे जन्म' और 'कर्म' को जो जानता है वह मुक्त हो जाता है, उनमें से कर्म के तत्व का स्पष्टीकरण इस श्लोक में किया है। जानता है' शब्द से यहाँ " जान कर तदनुसार वितेने लगता है" इतना अर्थ विवक्षित है । भावार्य यह है, कि भगवान् को उनके कर्म की बाधा नहीं होती, इसका यह कारण है कि वे फलाशा रख कर काम ही नहीं करते इसे जान कर तदनुसार जो वर्तता है इसको कमाँ का वाधन नहीं होता। भव, इस लोक के सिदान्त को ही प्रत्यक्ष उदाहरण से पढ़ करते हैं-