पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१४

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. गीता, अनुवाद और टिप्पणी-४ अध्याय । ६७५ कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ १५ ॥ ss किं कर्म किमकर्मति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्शात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १६ ॥ कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥ कर्मण्यकर्म यः पश्यदकर्माणि च कर्म यः। (१५) इसे जान कर प्राचीन समय के मुमुक्षु लोगों ने भी कर्म किया था। इसलिये पूर्व के लोगों के किये हुए अति प्राचीन कर्म को ही तू कर! [इस प्रकार मोक्ष और कर्म का विरोध नहीं है, अतएव अर्जुन को निश्चित उपदेश किया है, त् कर्म कर । परन्तु संन्यास मार्गवालों का कथन है कि "कों के छोड़ने से अर्थात् अकर्म से ही मोन मिलता है" इस पर यह शंका होती है कि ऐसे कथन का बीज क्या है? अतएव अब कर्म और अकर्म के विवेचन का प्रारम्भ करके तेईसवें श्लोक में सिद्धान्त करते हैं, कि अकर्म कुछ कर्मत्याग नहीं है, निष्काम कर्म को ही प्रकर्म कहना चाहिये ।। (१६) इस विषय में बड़े बड़े विद्वानों को भी भ्रम हो जाता है कि कौन कर्म है और कौन भकर्म; (अतएव) वैसा कर्म तुझे बतलाता हूँ कि जिसे जान लेने से तू पाप से मुक्त होगा। । [भकर्म 'नन् समास है। व्याकरण की रीति से उसके मनन शब्द के 'भभाव' अथवा 'अमाशस्त्य' दो अर्थ हो सकते है। और यह नहीं कह सकते, कि इस स्थल पर ये दोनों ही अर्थ विवक्षित न होंगे। परन्तु भगले लोक में विकर्म नाम से कर्म का एक और तीसरा भेद किया है, अतएव इस श्लोक में प्रकर्म शब्द से विशेषतः वही कर्मत्याग उद्दिष्ट है जिसे संन्यास मार्ग- वाले लोग 'कर्म का स्वरूपतः त्याग' कहते हैं। संन्यास मार्गवाले कहते हैं कि सब कर्म छोड़ दो,' परन्तु १८ वें श्लोक की टिप्पणी से देख पड़ेगा, कि इस बात को दिखलाने के लिये ही यह विवेचन किया गया है कि कर्म को बिल- कुन ही त्याग देने की कोई प्रावश्यकता नहीं है, संन्यास मार्गवालों का कर्म- त्याग सचा 'प्रकर्म नहीं है, अकर्म का मर्म ही कुछ और है। (१७) कर्म की गति गहन है (मतएव) यह जान लेना चाहिये, कि कर्म क्या है और समझना चाहिये, कि विकर्म (विपरीत कर्म) क्या है और यह भी ज्ञात कर लेना चाहिये, कि अकर्म (कर्म न करना) क्या है । (१८) कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म जिसे देख पड़ता है, वह पुरुष सब मनुष्यों में ज्ञानी और वही युक्त अर्थात योगयुक एवं समस्त कर्म करनेवाला है। [इसमें और अगले पांच श्लोकों में कर्म, अकर्म एवं विकर्म का खुलासा किया गया है। इसमें जो कुछ कमी रह गई है, वह अगले अठारहवें अध्याय