पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७४७

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hoc गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २९ ॥ यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि सच मे न प्रणश्यति। ॥३०॥ सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी माथि वर्तते ॥ ३१ ॥ आत्मौपस्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुत्रं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥ ३२ ॥ हो जाती है और उसे सर्वत्र ऐसा देख पड़ने लगता है, कि मैं सब प्रालियों में चौर सब प्राणी मुझ में हैं। (३०) जो मुझ (परमेश्वर परमात्मा) को सव स्थानों में.और सघ को मुझ में देखता है, उससे मैं कभी नहीं बिछुड़ता और न वही मुमा से कमी दूर होता है। । [हन दो श्लोकों में पहला वर्णन 'आत्मा' शब्द का प्रयोग कर अन्यक अर्थात आत्मष्टि से, और दूसरा वर्णन प्रथमपुरुष-दर्शक 'मैं' पद के प्रयोग से ध्यक्त अर्याद भक्ति-दृष्टि से, किया गया है। परन्तु अर्थ दोनों का एक ही है (देखो गीतार. पृ. ४२६-३२) मोक्ष और कर्मयोग इन दोनों का ही आधार वह महात्मैक्य-दृष्टि की है। २९वें श्लोक का पहला अधाश कुछ फर्क से मनुस्मृति (१२.६१), महाभारत (शां. २३८. २१ और २६८. २२), और पनिषदों (कैव. १. १०, ईश.६) में भी पाया जाता है। हमने गीतारहस्य के प्रकरण में विस्तारसहित दिखलाया है, कि सर्वभूतात्मक्य-ज्ञान ही समय मध्यात्म और कर्मयोग का मूल है (देखो पृ.३८५ प्रमृति)। यह ज्ञान हुए बिना इन्द्रिय-निग्रह का सिद्ध हो जाना भी व्यर्थ है और इसी लिये अगले अध्याय से परमेश्वर का ज्ञान बतलाना प्रारम्भ कर दिया है। (३३) जो एकत्वबुद्धि अर्थात् सर्वभूतात्मैक्य-बुद्धि को मन में रख सब प्राणियों में रहनेवाले मुझ को (परमेश्वर को) मनता है, वह (कर्म) योगी सब प्रकार से पता हुभा मी मुझमे रहता है। (३२) हे अर्जुन ! सुख हो या दुःख, अपने समान और को भी होता है, जो ऐली (आत्मीपम्य) दृष्टि से सर्वत्र देखने लगे, वह (कर्म) योगी परम अर्थात् उत्कृष्ट माना जाता है। ['प्राणिमात्र में एक ही प्रात्मा है । यह दृष्टि सांख्य और कर्मयोग दोनों मागों में एक सी है। ऐसे ही पातंजल योग में भी समाधि लगा कर परमेश्वर की पहचान हो जाने पर यही साम्यावस्था प्रास होती है । परन्तु सांख्य और पातंजल योगी दोनों को ही सब कमी का त्याग इष्ट है, अतएव वे व्यवहार में इस साम्यबुद्धि के उपयोग करने का मौका ही नहीं आने देते; और गीता का कर्मयोगी ऐसा न कर, अध्यात्मज्ञान से प्राप्त हुई इस साम्य बुद्धि का व्यवहार में भी नित्य उपयोग करके, जगत् के सभी काम लोकसंग्रह के लिये किया करता