गीवा, अनुवाद और टिप्पणी -६ अध्याय । ७०३ अर्जुन उवाच । 88 योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चंचलवास्थिति स्थिराम् । ३३५ चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ ३४॥ श्रीभगवानुवाच । असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौतेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥ असंयतात्मना योगो दुष्पाप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तमुपायतः ॥ ३६॥ है। यही इन दोनों में बड़ा भारी भेद है। और इसी से इस अध्याय के अन्त में (लोक ४६) स्पष्ट कहा है, कि तपस्वी अर्थात पातंजल-योगी और ज्ञानी अर्वाद सांख्यमार्गी, इन दोनों की अपेक्षा कर्मयोगी श्रेष्ठ है । साम्ययोग के इस वर्णन को सुन कर अव अर्जुन ने यह शैफा की-] अर्जुन ने कहा-(२३) हे मधुसूदन! साम्य अथवा साम्पबुद्धि से प्राप्त होने वाला जो यह (कर्मयोग तुमने बतलाया, मैं नहीं देखता, कि (मन की) चलता के कारण वह स्थिर रहेगा। (३५) क्योंकि है कृष्ण! यह मन चंचल, होला, बलवान् और पढ़ है। वायु के समान, अर्थात् इवा की गठरी बाँधने के समान, इसका निग्रह करना मुझे अत्यन्त दुष्कर दिखता है। [३३३ श्लोक के साम्य' अथवा साम्यवृद्धि से प्राप्त होनेवाला, इस विशेषण से यहाँ योग शब्द का कर्मयोग ही अप है। यथार पहले पातंजलयोग की समाधि का वर्णन माया है, तो भी इस श्लोक में योग' शब्द से पार्वजल- योग विवादित नहीं है। क्योंकि दूसरे अध्याय में भगवान् ने ही कर्मयोग की ऐसी व्याख्या की है," समत्वं योग उच्यते । (२.४८)-"द्धि की समता या समत्व को ही योग कहते हैं"। अर्जुन की कठिनाई को मान कर भगवान् श्रीमगवान ने कहा-(२५) हे महाबाहु अर्जुन ! इसमें सन्देह नहीं, कि मन चञ्चल है और उसका निग्रह करना कठिन है परन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से यह स्वाधीन किया जा सकता है। (१६) मेरे मन में, जिसका अन्तःकरण काबू में नहीं, ससको (इस साम्यबुद्धिरूप) योग का प्राप्त होना कठिन है। किन्तु अंन्ता- करण को काबू में रख कर प्रयत्न करते रहने पर उपाय से (इस योग का) प्राप्त होना सम्भव है। [तात्पर्य, पहले जो बात कठिन देख पड़ती है, वही अभ्यास से और दी रखोग से अन्त में सिद्ध हो जाती है। किसी भी काम को बारबार करना
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