गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अर्जुन उवाच । 8 अयतिः श्रद्धयोपतो योगाश्चलितमानसः । अप्राप्य योगसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७॥ कञ्चिन्नोभयविम्रप्टश्छिन्नानामिव नश्यति । अप्रतिष्टो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥ एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुरहस्यशेषतः। त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न झुपपद्यते ॥ ३९ ॥ म्यास बहलाता है और वैराग्य का मतलब है राग या प्रीति न रखना अर्थात इछा-विहीनता । पातंजल योगसूत्र में प्रारम्भ में ही योग का लक्षण यह बतलाया है कि- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, -चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं (इसी अध्याय का २० वा श्लोक देखो) और फिर अगले सूत्र में कहां ई, कि “म्यास-वैराग्याभ्यां तनिरोधः"-अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृचि {का निरोध हो जाता है। यही शब्द गीता में आये हैं और भामेप्राय भी यही है परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता, कि गीता में ये शब्द पात- जन-योगसूत्र से लिये गये है (देखो गीतार. पृ. ५३०) । इस प्रकार, यदि मनो. निग्रह करके समाधि लगाना सम्भव झो, और कुछ निग्रही पुरुषों को घर महीने के अभ्यास से यदि यह सिद्धि प्राप्त हो सकती हो, तो भी अब यह दूसरी शक्षा होती है, कि प्रकृति-स्वभाव के कारण अनेक लोग दो-एक जन्मों में भी इस परमावस्या में नहीं पहुँच सकते-फिर ऐसे लोग इस सिद्धि को क्यों कर पायें ? क्योंकि एक जन्म में, जितना हो सका उतना, इन्द्रियनिग्रह का सिम्यास कर फर्मयोग का आचरण करने लगें तो वह माते समय अधूरा ही रह मायगा और अगले जन्म में फिर पहले से आरम्म करें तो फिर आगे के जन्म में मी वही हाल होगा । अतः अर्जुन का दूसरा प्रश्न है, कि इस प्रकार के पुरुष क्या करें- अर्जन ने कहा-(२७) हे कृष्ण ! श्रद्धा (तो) हो, परन्तु (प्रकृति स्वभाव से) पूरा प्रयत्न अथवा संयम न होने के कारण जिसका मन (साम्यबुद्धिरूप कर्मः) योग से विचल जावं, वह योग-सिद्धि न पा कर किस गति को जा पहुंचता है। (२८) हे महायादु श्रीकृष्ण! यह पुरुष मोहग्रस्त हो कर ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग में स्थिर न होने के कारण दोनों ओर से प्रष्ट हो जाने पर विव-मिव वादल के समान (वांच में ही) न्ष्ट तो नहीं हो जाता ? (३६) हे कृपा! मेरे इस सन्देह को तुम्हें ही निजप दूर करना चाहिये तुम्हें छोड़ इस सन्देह का मेटनेवाला दूसरा कोई न मिलेगा। [यपि नन् समास में प्रारम के नन् (ब) पद का साधारण अर्थ अभाव' होता है, तथापि कई घार अल्स अर्थ में भी उसका प्रयोग हुमा
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