पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९२

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १० अध्याय । IS पता विभूति योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः। गीता में विपत्रित है। किन्तु इस पर दूसरा पाक्षेप यह है कि ये सब. सावा मनु भविष्य में होनेवाले हैं, इस कारण यह भूतकाल-दर्शक अगला पाश्य "जिनसे इस लोक में यह प्रजा हुई " भावी साप मनुनों को लागु नहीं हो सकता । इस प्रकार पहले के चार' शब्दों का सम्बन्ध 'मनु' पद से जोड़ देना ठीक नहीं है । अतएव कहना पड़ता है कि पहले के चार' ये दोनों शान स्वतन्त्र रीति से प्राचीन काल के कोई चार मापियों अपना पुरुषों को चौध कराते हैं। और ऐसा मान लेने से यह प्रश्न सहन ही होता है कि गे पहले के चार प्रापि या पुरुष कौन है ? जिन टीकाकारों ने इस लोक का ऐसा अर्घ किया है, उनके मत में सनक, सनन्द, सनातन और सनामार (भागवत. ३. १२.४) येही ये चार प्रापिई। किन इस मय पर प्रादेप यह है कि ययपि ये चारों भरपि वसा के मानस पुत्र हैं तथापि ये सभी जन्म से ही संन्यासी होने के कारण प्रजा वृद्धि न करते थे और इससे बमा इन पर कुछ हो गये थे (भाग. ३. १२; विष्णु १.७)। अर्थात् यह पाय इन पार बारपियों को दिलकुल ही मयुक्त नहीं होता कि "मिनसे इस लोक में यह प्रमातु:"-येषां लोक इमाः प्रजाः । इसके अतिरिक्त कुछ पुरागों में ययपि यह वर्णन है कि ये ऋषि चार ही था तथापि भारत के नारायणीय अर्थात् भागवतधर्म में कहा है कि इन चारों में सन, कपिल और सनसुजात को मिला लेने से जो सात मपि होते ६ पे सप, मया के मानस पुत्र हैं और वे पहले से ही निवृत्तिधर्म के थे (मभा. शां. ३४०.६७,६८) । इस प्रकार सनक प्रादि ऋषियों {को सात मान लेने से कोई कारण नहीं देख पड़ता कि इनमें से चार ही क्यों लिये जायें। फिर पहले के चार' हैं कौन ? हमारे मत में इस प्रश्न का उत्तर नारायगीय अथवा भागवतधर्म की पैराणिक कथा से ही दिया जाना चाहिये । श्योंकि यह निर्विवाद है कि गीता में भागवतधर्म सी का प्रतिपादन किया गया है। मय यदि यह देखें कि भागवतधर्म में शुष्टि की उत्पत्ति की करना, किस प्रकार की थी, तो पता लगेगा कि मरीचि आदि सात प्रपियों के पहले वासुदेव (आत्मा), सहपाश (जीव), प्रान (मन), और अनिरुद्ध (अहसार ) ये चार मूर्तियाँ उत्पन्न हो गई थी और कहा है कि इनमें से पिक अनिरुद्ध से अर्थात् प्रकार से या ब्रह्मदेव से मरीचि आदि पुत्र उत्पन्न हुए (मभा. शां. ३३६. ३४-४० और ६०. -७२:३४०. २७-३१)। वासुदेव, संकप, प्रयुन्न और अनिरुद्ध इन्हों चार मूर्तियों को चतुर्दूह' कहते हैं। चौर भागवतधर्म के एक पन्य का मत है कि ये चारों मूर्तियाँ तन्त्र थी तथा दूसरे कुछ लोग इनमें से तीन अथवा दो को ही प्रधान मानते हैं । किन्तु भावगीता को ये काम मान्य नहीं है। हनने गीतारहस्य (पृ. १६५ औ गी.ए.१५