गीतारहस्य अथवा धर्मयोगशास्त्र । सोडविपेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥७॥ अहं सर्वस्य प्रभवो मतः सर्व प्रवर्तते । शत मत्वा भजन्ते मां बुधा मावसमन्विताः॥८॥ मञ्चित्ता मद्गतप्राणा वांधयन्तः परस्परम् । फथयन्तश्व मां नित्यं तुष्यान्त च रमन्ति च ॥९॥ तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रोतपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०॥ सेषामेवानुकंपार्थमहमज्ञानजं तमः । माशयास्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपन भास्वता ।। ११ ।। १५३७-५३८) में दिखलाया है कि गीता एकज्यूह-पाय की है, अर्थात् एक ही परमेश्वर से चतुर्वृह मादि सब कुछ ही उत्पत्ति मानती है। ब्रतः व्यूहात्मक यापु. देव धादि मूर्तियों को स्वतन्त्र न मान कर इस लोक में दर्शाया है कि ये चारों प्यूह एक ही परमेश्वर अर्थात् सर्वन्यापी वासुदेव के (गी.७. १) 'भाव' हैं। इस दिष्टि से देखने पर विदित होगा कि मागवतधर्म के अनुसार पहले के चार' इन शब्दों का उपयोग वासुदेव आदि चतु!हरे लिये किया गया है कि जो सप्तर्पियों के पूर्व उत्पन्न हुए थे। भारत में ही लिखा है, कि भागवतधर्म के चतुयूंह आदि भेद पहले से ही प्रक्षित घे (ममा. शां.३४८.५७) यह कल्पना कुछ हमारी ही नई नहीं है। सारांश, भारतान्तर्गत नारायणीयाख्यान के अनुसार हमने इस श्लोक का अर्थ यो लगाया है:-'सात महर्षि अर्थात मरीषि प्रादि, 'पहले के चार अर्याद वासुदेव आदि धनुर्गृह, और 'मनु' अर्थात् जो उस समय से पहले हो चुके थे और वर्तमान, सब मिला कर स्वायम्भुव आदि लात मनु । अनिरुद्ध अर्थात् अहंकार मादि चार सूर्तियों को परमेश्वर के पुत्र मानने की कल्पना भारत में और अन्य स्थानों में भी पाई जाती है (देखो मना.शा.३११.७)परमेश्वर के भावों का वर्णन हो चुका व यवलाते हैं कि इन्हें जान कर उपासना करने से क्या फल मिलता है- (७)जो मेरी इस विभूति अर्थात् विस्तार, और चोग अर्याद विस्तार काने की शक्ति या सामर्थ्य के तन को मानता है, उसे निस्सन्देह हिघर (कर्मयोग प्राप्त होता है। (८) यह जान कर कि मैं सब का उत्पत्तिस्थान हूँ और मुझसे सप वस्तुओं की प्रवृत्ति होनी है। ज्ञानी पुरुष भावयुम्न होते हुए मुझको मजते हैं। (६) वे मुझमें मन जमा कर और प्राण को लगा कर परस्पर बोध करते हुए एवं मेरी कथा कहते हुए (उसी में) सहा सन्तुष्ट और रममाग रहते हैं । (१०). इस प्रकार सदैव युक्त होकर अर्थात समाधान ले रह कर जो लोग मुझे प्रीतिपूर्वक भगवे हैं, उनको में ही ऐसी (समन्व- बुद्धि का योग देता हूँ कि जिससे वे मुझे पावें । (1) और उन पर अनुमह करने के लिये ही मैं उनके मात्ममाष भाव
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