पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९४

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गीता, मनुवाद और टिप्पणी १० आया। अर्जुन उवाच । $ पर वहा पर धाम पवित्रं परमं भवान्। पुरुष माश्यासं दिव्यमादिषम विभुम् ॥ १२ ॥ साहुस्त्वामुषयः स देवर्षिनाररस्तथा। बलियो देवकोव्याला स्वयं चैव नवीषिसे ॥ १३ ॥ सर्वमेततं मन्ये यन्मां पदसि केशच । महि ते भगवन्न्यक्ति विदुदेवा म दागवाः ॥ १४ ॥ स्वयमेवात्मनारमान वेत्थ स्वं पुरुषोप्सम । भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१५॥ वक्तुमाईस्यशेषण विख्या यात्मविभूतयः। याभिर्विभूतिलिलोकानिमारवं व्याप्य तिष्ठसि ।।१६ ।। प्रसारण में पेट कर तगयो ज्ञान-दीप से; (उनके ) अज्ञानमूलक अन्धकार का नाश करता है। । [साय क्षष्याय में कहा है, कि मिन मिन देवताओं की भदा भी पर भी देता है (७.२१)। इसी प्रकार मय जपा के दस लोक में भी वर्णन विभक्तिमार्ग से नगे हुए मनुष्य को समत्व-बुद्धि को उसत कामे का काम भी परमेश्वर ही करता है और, पक्षने (जी. ६.४४) जो यह वर्णन है कि जब मनुष्य के भन में एक धार फर्मयोग की जिज्ञासा जागृत हो जाती है, तब यह आप ही भाप पूर्ण सिद्धि की ओर सिंघा चला जाता है, उसने साथ भक्तिमार्ग का यह सिद्धान्त समानार्थक है। ज्ञाम की सटि से अर्थात कर्म-विपाकप्रक्रिया के अनुसार कहा जाता है कि यह कर्तृत्व यात्मा की स्वतन्त्रता से मिलता है। पर आत्मा भी तो परमोधर ही | इस कारण भक्तिमार्ग में ऐला वर्णन हुआ करता है कि इस फल अथवा बुद्धि को परमेश्वर ही प्रत्येक मगुष्य के पूर्वकर्मों के अनुसार देता है (देखो गी ७. २० और गीतार. पृ. १२७) । इस प्रकार भगवान् के भरिमार्ग का वान पतला चुकन पर- मर्यन ने कहा-(१२-१३)तुम्शों परम ब्रह्मा, श्रेष्ठ स्थान और परम पवित्र वस्तु (ब)सब झापि, ऐसे ही देवर्षि नारद, असित, देवन और पास भी तुमको दिम्प एवं शावत पुरुष, आविश्व, अजन्मा, लविभु भात सर्वमापी कहते हैं और स्वयं तुम भी मुझसे वही कहते हो। (१५) हे केशव! तुम मुझसे जो कहते हो, उस सप को मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवान् ! तुम्हारी व्यक्ति अर्थात तुम्हारा भूल देवताओं को विदित नहीं और दामों को विदित नहीं । (१५) सब सूत्रों के अस्पन्न करनेवाले ई भूतेश ! देवदेव जगत्पते ! हे पुरुषोत्तम ! तुम स्वयं ही अपने माप को मानसे थी। (६) अतः तुम्हाय जो दिन्म विभूबियाँ हैं, मिन विभूतियों