७५६. गीतारहय अथवा कर्मयोगशास्त्र । कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सवा परिचितयन् । केयु कयु च भावेपुचिंत्योऽसि सगवन्मया ॥ १७ ।। विस्तरेणात्मनो योग विभूतिं च जनार्दन । भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतां नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥ श्रीभगवानुवाच । IS हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या हात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यंतो विस्तरस्य मे ॥ १९ ॥ अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। से इन सब लोकों को तुम च्यात कर रहे हो, उन्हें आप ही (कृपा कर) पूर्णतास बतलावें । (१७) हे योगिन् ! (मुझे यह बतलाइये कि) सदा तुम्हारा चिन्तन करता हुआ मैं तुम्ह कैसे पहचानें ? और हे भगवन् ! मैं किन-किन पदार्थों में तुम्हारा चिन्तन करूँ? (१८) हे जनार्दन ! अपनी विभूति और योग मुझे फिर विस्तार से वतनामोक्योंकि अमृततुल्य (तुम्हारे भाषण को) सुनने-सुनते मेरी तृप्ति नहीं होती। । [विभूति और योग, दोनों शब्द इसी अध्याय के सातवें श्लोक में आये हैं और यहाँ अर्जुन ने उन्हीं को दुहरा दिया है। 'योग' शब्द का अर्थ पहले (गी. १७. २५) दिया जा चुका है, उसे देखो । भगवान् की विभूतियों को अर्जुन इललिये नहीं पूछता, कि भिन्न भिन्न विभूतियों का ध्यान देवता समझ कर किया जाये; किन्तु सत्रहवें श्लोक के इस कथन को स्मरण रखना चाहिये कि उक्त विभूतियों में सर्वव्यापी परमेश्वर की ही भावना रखने के लिये उन्हें पूछा है । क्योंकि भगवान यह पहले ही वतना आये हैं (गी. ७. २० - २५, ६. २२-२८) कि एक ही परमे- श्वरको सव स्थानों में विद्यमान जानना एक बात है, और परमेश्वर की अनेक विभू- तियों को भिन्न भिन्न देवता मानना दूसरी बात है। इन दोनों में मक्तिमार्ग की दृष्टि से महान् अन्तर है। श्रीभगवान् ने कहा-(१६) अच्छा; तो अब हे कुरुश्रेष्ठ! अपनी दिव्य विभूतियों में से तुम्हें मुख्य मुख्य बतलाता हूँ, क्योंकि मेरे विस्तार का अन्त नहीं है। [इस विभूति-वर्णन के समान ही अनुशासनपर्व (१४.३११-३२१) में और अनुगीता (अश्व. ४३ और ४४ ) में परमेश्वर के रूप का वर्णन है। परन्तु गीता ज्ञा वर्णन उसकी अपेक्षा अधिक सरस है, इस कारण इसी का अनुकरण और स्थलों में भी मिलता है। उदाहरणार्थ भागवतपुराण के, एकादश स्कन्ध के सोलहवं अध्याय में, इसी प्रकार का विभूति-वर्णन भगवान् ने उद्धव को समझाया है और वहीं आरम्भ में (भाग. ११.१६.६-८) कह दिया गया है, कि यह वर्णन गीता के इस अध्यायवाले वर्णन के अनुसार है।] (२०) हे गुडाकेश ! सब भूतों के भीतर रहनेवाला प्रात्मा मैं ..और सब. सूत्रों
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९५
दिखावट