गीतारहल अथवा कर्मयोगशास्त्र रुद्राणां शंकपश्चास्मि पिसेशी यक्षरक्षसाम। प्रसूनां पायनश्चास्मि मेशः शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥ पुरोधसां च मुख्य मां विद्धि पार्थ घृहस्पतिम् । सेनानीनामहं रकंद सरसामस्मि सागरः ॥२४॥ महर्षीणां भृगुरहं गिरायव्येकमक्षरम् । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥२५ ॥ अश्वस्या लवृक्षाणां देवाणां च नारदः । गंधर्षाणां चिभरथः सिद्धानां कपिलो मुनिः २६ ॥ उच्चैःश्रयलमश्यानां विद्धि माममृतोद्भवम् । ऐरावतं गजेंद्राणां नराणां च नराधिपम् ॥२७॥ आयुधानामहं वन्ने धेनूनायस्मि कामधु । प्रजनश्चास्मि कंदर्पः सपणामस्मि वासुकिः ॥ २८ ॥ अनंतश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् । ही प्रयोग फिर किया गया है । अतएव भक्ति प्रधान धर्म में, यश-यता आदि क्रियात्मक वेदों की अपेक्षा, गाम प्रधान वेद अर्थात् सामवेद को अधिक महान दिया गया हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं; और "मैं वेदों में सामवेद हूँ" इस झधन का हमारे मन में सीधा और सहज कारण यही है। (२३) (ग्यारह) रुद्रों में शक्षर मैं हु यक्ष और राक्षसों में कुअर है। (पाठ) वसुमा में पावक (और सात) पर्वतों में मेरु हूँ। (२४) हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य वृहस्पति मुममो समझा मैं सेनानायकों में स्कन्द (कार्तिकेय) और अलाशयों में समुद्र हूँ। (२५) महर्षियों में मैं भूपू वाणी में एकाक्षर अर्थात् कार हूँ। यज्ञों में अप-यज्ञ में स्थावर अर्थात् स्थिर पदार्थों में हिमालय हूँ। ["यज्ञों में जपयश में हूँ" यह वास्य महत्व का है। अनुगीता (ममा. अक्ष. १.८) कहा है कि "यज्ञानां जुतमुत्तमम् " अर्थात् यज्ञों में (प्रप्ति म) हवि समर्पण कर लिद होनेवाला यज्ञ उत्तम है और वही वैदिक कर्म- हायडवालों का मत है । पर मधिमार्ग में हवियज्ञ की अपेक्षा नाग-यज्ञ या जप- यज्ञ का विशेष महत्व है, इसी ले गीता में "यज्ञानां जप-यज्ञोऽस्मि " कहा है। मिनुने भी एक स्थान पर (२.८७) कहा है कि "और कुछ झरे या न करे, केवल जपले ही ग्राह्मण सिद्धि पाता है ।" भागवत में "यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽह" पाठ है। (२६) मैं सब वृक्षों में अश्वत्य अर्थात् पीपल और देवर्दियों में नारद हूँ, गंधवों में चित्ररथ और सिद्धा में कपिल मुनि हूँ। (२७) घोड़ों में (अमृत-मन्थन के समय निकला दुधा) उच्चश्रवा मुझे समझो।मैं गजेन्द्रों में ऐरावत, और मनुष्यों में राजा है। (२८) मैं शायुधों में बद्ध, गौत्रों में कामधेनु, और प्रजा उत्पन्न बस्याला कार
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