गीता, मनुवाद और टिप्पणी-१० अध्याप। xt पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २९ ॥ प्रहलादयास्मि देवानां कालः कलयतामहम् । मृगाणां च मृगद्रोऽहं धनतयश्च पक्षिणाम् ॥ ३०॥ पधनः परतामसिाराम: शहामृतामहम् । क्षाणां मकरवारिम स्रोतसामरिम जाहपी ॥ ३१ ॥ स्वर्गाणामादिरंतश्च माधं चैवाहमर्जुग! अध्यात्मविद्या विद्यानांवाद: प्रघदनामहम् ॥ ३२॥ अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्व सामासितस्य च । याहमवाक्षयः काली धाताऽह विश्वतोसुन्नः ॥ ३॥ में हमें सपा में पासुकि हूँ। (२९) नागों में अनारा में थादस अर्थात् जलपर प्राणियों में यरुण, और पितरों में अर्यमा में है। मैं नियमन करनेवालों में यमाई। । वासुकि सपा का राजा और सनन्त' शेप' ये अर्थ मिशित और अमरकोश तथा महाभारत में भी पही अर्थ दिये गये हैं (देखो ममा. भादि १३५-३६) परत निघयपूर्वक नहीं पतपाया जा सकता कि नाग और सर्प में क्या भेद है। महाभारत यो भारतीफ-वपाण्यान में इन शवों का प्रयोग समानार्थक ही है । तथापि जान पड़ता है, कि यहाँ पर सर्प और नाग शब्दों से सर्प के साधारण वर्ग की दो भित्र-भित जातियां विवक्षित है। श्रीधरी टीका में सर्पको विपला और नाग को विषहीन कहा . रामागुजभाष्य में सर्प को एक सिरयाला धीर नाग को अनेक सिरांपाला कहा है। परन्तु ये दोनों भेद ठीक मही अंचते । पयोकि कुछ स्थानों पर, नागों के ही प्रमुख कुल यतमाते हुए उन में अनन्त और रासुकि को पहले गिनाया है और वर्णन किया है कि दोनों ही अनेक सिरोयाले एवं पिपरा किन्तु शान्त है अग्निवर्ण का और पासुकि है पीला । मागयत का पाठ गीता के समान ही है। (१०) मैं दैत्यों में प्रबहाद है। मैं प्रसनेपालों में काल, पशुओं में मृगेन्द्र अर्थात सिंह और पक्षियों में गरुड़ है। (३१) मैं वेगपानी में घायु मैं शसधारियों में राम, मछलियों में मगर और नदियों में भागीरथी हूँ। (३२) हे अर्जुन! अष्टिमात्र का प्रादिसन्त और मध्य भी मैं हु विद्यानों में अध्यात्मविद्या और पाद करनेवालों का याद में है। [पीछे २० ३ लोक में थतजा दिया है कि सचेतन भूतों का मादि, मध्य और अन्त में हूँ तथा प्रय कहते हैं कि सट घरावर टिका आदि, मध्य पौर पन्त मैं यही भेद है। (२) मैं अक्षरों में प्रकार और समालों में (उभयपद-प्रधान) द्वन्द्व हु (निमेष, मुहर्त यादि) प्रदाय काल और सर्वतोमुख अर्थात चारों ओर से मुखापाला धाता यानी प्रया. (३) सपका बए करनेवाली मृत्यु, और भागे MER
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