गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१७ अध्याय । ८२३ दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्से मोक्षकांक्षिभिः ॥ २५ ॥ सद्भाधे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते । प्रशस्ते कर्मणि तथा सञ्छब्दः पार्थ युज्यते ॥२६॥ यक्षे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते । कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवामिधीयते ॥२७॥ IS अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं हतं च यत् । फर, मोक्षार्थी लोग यश, दान, तप आदि भनेक प्रकार की क्रियाएं किया करते हैं। (२६) अस्तित्व और साधुता अर्थात् मलाई के में 'सव' शब्द का उपयोग किया जाता है। और से पार्य ! इसी प्रकार प्रशस्त अर्थात् अच्छे कमों के लिये भी सत् । शब्द प्रयुक्त होता है । (२७) यज्ञ, तप और दान में स्थिति अर्थात स्थिर भावना रखने को भी 'सद' कहते हैं तथा इनके निमित्त जो कर्म करना हो, बस कर्म का नाम मी सत् ही है। [यज्ञ, तप और दान मुख्य धार्मिक कर्म हैं तथा इनके निमिच जो कर्म किया जाता है उसी को मीमांसक लोग सामान्यतः यज्ञार्थ कर्म कहते हैं । इन कर्मों को करते समय यदि फल की प्राशा हो तो भी वह धर्म के अनुकूल रहती है, इस कारण ये फर्म · सर ' श्रेणी में गिने जाते है और सब निष्काम कर्म तत् (यह अर्थात् परे की) श्रेणी में लेखे जाते हैं । प्रत्येक कर्म के प्रारम्भ में जो यह तत्सत् ' महासाकल्प कहा जाता है, इसमें इस प्रकार से दोनों प्रकार के कों का समावेश होता है। इसलिये इन दोनों फर्मों को प्रमानुकूल ही समझना चाहिये । देखो गीतारहस्य पृ. २४५ । अव असत् कर्म के विषय में कहते हैं-] (२८) अश्रवा से जो स्पन किया हो, (दान) दिया हो, तप किया हो, या मो कुछ (कर्म) किया हो, वह 'असत् ' कहा जाता है। ई पार्थ! वह (कर्म) म मरने पर (परलोक में), और न इस लोक में हितकारी होताई। [तात्पर्य यह है कि प्रहास्वरूप के घोधक इस सर्वमान्य सकल्प में ही निष्काम बुदि से, अथवा कर्तव्य समझ कर, किये हुए साविक कर्म का, और शास्त्रानुसार सदादि से किये हुए प्रशस्त कर्म अथवा सत्कर्म का समावेश होता दि। अन्य सब कर्म वृथा हैं। इससे सिद्ध होता है कि उस कर्म को छोड़ देने का उपदेश करना उचित नहीं है कि जिस कर्म का ब्रह्मनिर्देश में ही समावेश होता और जो ब्रह्मदेव के साथ ही उत्पन्न हुआ है (गी. ३. ३०), तथा जो | किसी से छूट भी नहीं सकता। तत्सत् "रूपी ब्रह्मनिर्देश के उक्त कर्मयोग- प्रधान अर्थ को, इसी सप्याय में फर्मविभाग के साथ ही, थतनाने का हेतु भी यही है । क्योंकि केवल प्रहमास्वरूप का वर्णन तो तेरहवें अध्याय में और उसके पहले भी हो चुका है । गीतारहस्य के नवे प्रकरण के अन्त (पृ. २४५) में मितला चुके हैं कि तत्सत् ' पद का असली अर्थ क्या होना चाहिये । माग
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