८२४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अलदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ २८ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीसु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यार्या योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ कल सच्चिदानन्द पद से ब्रह्मनिर्देश करने की प्रथा है। परन्तु इसको स्वीकार न करके यहाँ नब उस तत्सत् ' ब्रह्मनिर्देश का ही उपयोग किया गया है, तब इससे यह अनुमान निकल सकता है कि सच्चिदानन्द' पदरूपी ब्रह्मनिर्देश गीता अन्य के निर्मित हो चुकने पर साधारण ब्रह्मनिर्देश के रूप से प्रायः प्रचलित हुआ होगा।] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए माद कहे हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविद्यान्त- गंत योग-प्रांतं कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्णा और अर्जुन के संवाद में, प्रद्धा- प्रय-विभाग नामक सत्रहवा अध्याय समाप्त हुमा। अठारहवाँ अध्याय । [अठारहवां अध्याय पूरे गीताशास्त्र का उपसंहार है। अतः यहाँ तक जो विवे- स्न हुआ है उसका इम इस स्थान में संक्षेप से सिंहावलोकन करते हैं (अधिक विस्तार गीतारहत्य के 18वें प्रकरण में देखिये)। पहले–अध्याय से स्पष्ट होता है कि स्वधर्म के अनुसार प्राप्त हुए युद्ध को छोड़ भीख मांगने पर उतारू होनेवाले अर्जुन को अपने कर्तव्य में प्रवृत्त करने के लिये गीता का उपदेश किया गया है। अर्जुन को शंका थी कि गुरुहत्या भादि सदोष कर्म करने से प्रात्मकल्याण कभी न होगा । अतएव आत्मज्ञानी पुरुषों के स्वीकृत किये हुए, भायु विताने के दो प्रकार के मागों का-सांख्य (संन्यास) मार्ग को और कर्मयोग (योग) मार्ग का वर्णन दूसरे अध्याय के प्रारम्भ में ही किया गया है। और अन्त में यह सिद्धान्त किया गया है कि यदि ये दोनों ही मार्ग मोक्ष देते हैं तथापि इनमें से कर्मयोग ही अधिक श्रेयस्कर है (गी. ५.२)। फिर तीसरे अध्याय से ले कर पाँचवें अध्याय तक इन युक्तियों का वर्णन है कि, कर्मयोग में वुद्धि श्रेष्ठ समझी जाती है। बुद्धि के स्थिर और सम होने से कर्म की बाधा नहीं होती; कर्म किसी से भी नहीं छूटते तथा उन्हें छोड़ देना भी किसी को उचित नहीं, केवल फज्ञाशा को त्याग देना ही काफी है। अपने लिये न सही तो भी लोकसंग्रह के हेतु कर्म करना आवश्यक है बुद्धि अच्छी हो तो ज्ञान और कर्म के वीच विरोध नहीं होता तथा पूर्व- परपरा देखी जाय तो ज्ञात होगा कि जनक मादि ने इसी मार्ग का आचरण किया है । अनन्तर इस बात का विवेचन किया है कि कर्मयोग की सिद्धि के
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