गीता, अनुवाद और टिप्पणी १८ अध्याय। •८२६ IS नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥७॥ दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत् । [फर्म का दीप अर्थात् बन्धकता कर्म में नहीं, फलाशा में है । इसानिये पहले अनेक बार जो कर्मयोग का यह तत्व कहा गया है कि सभी को को फलाशा छोड़ कर निकाम-युद्धि से करना चाहिये, उसका यह उपसंहार है। संन्यासमार्ग का यह मत गीता को मान्य नहीं है कि सब कर्म दोषयुक्त, अतएव त्याज्य हैं (पेखोगी. 15.४८ और ४८) गीता केवल काम्य कर्मों का संन्यास फिरने के लिये कहती है परन्तु धर्मशास्त्र में जिन कर्मों का प्रतिपादन है, वे समी काम्य ही हैं (गी. २.४२-४४), इसलिये मम कहना पड़ता है कि उनका भी सन्यास करना चाहिये, और यदि ऐसा करते हैं तो यज्ञ-चक्र धन्द हुमा जाता है (३.१६) एवं इससे सृष्टि के उद्ध्वस्त होने का भी अवसर पाया जाता है। प्रश्न होता है कि, तो फिर फरना क्या चाहिये ? गीता इसका यो उत्तर देती है कि यज्ञ, दान प्रभृति कर्म स्वर्गादि-फलप्राति के हेतु करने के लिये यद्यपि शास्त्र में कक्षा है, तथापि ऐसी बात नहीं है कि ये ही कर्म लाकसमह के लिये इस निष्का- म बुद्धि से न हो सकते हो कि यज्ञ करना, दान देना और तप करना मादि मेरा कर्तव्य है (देखो गी. १७.११, १७ और २०)। अतएव लोकसंग्रह के निमित्त स्वधर्म के अनुसार जैसे अन्यान्य निष्काम कर्म किये जाते हैं वैसे ही यज्ञ, दान बादि कर्मों को भी फलाशा और यासक्ति छोड़ कर करना चाहिये। क्योंकि वे सदैव पावन' अर्थात् चित्तशुद्धि-कारक अथवा परोपकारबुद्धि बढ़ानेवाले हैं। मूज लॉक में जो " एतान्यपि ये भी " शब्द हैं उनका अर्थ यही है कि “धन्य निष्काम कर्मों के समान यज्ञ, दान मादि कर्म भी करना चाहिये," इस रीति से ये सब फर्म फलाशा छोड़ कर अथवा भाक्त पुष्टि से केवल परमेश्वरार्पण-धुद्धिपूर्वक किये जावे तो सृष्टि का चक्र चलता रहेगा; और कर्ता के मन की फलाशा छूट जाने के कारण ये कर्म मोन-प्रालि में बाधा भी नहीं डाल सकते । इस प्रकार सब बातों का ठीक ठीक मेल मिल जाता है। कर्म के विषय में कर्मयोगशास्त्र का यही अन्ति- म और निश्चित सिद्धान्त (गी. २. ४५ पर हमारी टिप्पणी देखो) मीमांसको के कर्ममार्ग और गीला के कर्मयोग का भेद गीतारहस्य (पृ. २९२-२६५ और .. १३४४-३४६) में अधिक स्पष्टता से दिखाया गया है। अर्जुन के प्रश्न करने पर संन्यास और त्याग के मयों का कर्मयोग की दृष्टि से इस प्रकार स्पष्टीकरण हो चुका । अब साविक प्रादि भेदों के अनुसार कर्म करने की मित्र मिल रीतियों का वर्णन करके उसी अर्थ की हद करते हैं-] (७) जो कर्म (स्वधर्म के अनुसार) नियत अर्थात् स्थिर कर दिये गये है, समका संन्याल यानी त्याग करना (किसी को भी) अचित नहीं है । इनका, मोह
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