पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१२३

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११२ गीता-हृदय छोड हम इसी सघर्षमे ही क्यो न लगे ? इससे तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नास्तिकवादको साधनके रुपमें ही स्वीकार करता है। इस लम्बे उद्धरणके पहले जो हमने लेनिनके दो छोटे-छोटे उद्धरण दिये है उनमें जो सबसे मार्केकी बात है वह यह है कि दोनोमें यही कहा गया है कि धर्मकी बुनियाद तो पूँजीवाद और उसकी अनेक शकले है। वह तो पूंजीवादके आधारपर बनी सामाजिक व्यवस्थाको ही वर्तमान धर्म और ईश्वरवादकी जड मानता है। फलत मुख्य काम वह यही बताता है कि उस जडको ही खोदना होगा। पत्ता और शाखा तोडनेसे पेड तो रहो जायगा। इसीलिये इस सामाजिक व्यवस्थाको ही मिटानेपर हमे जोर देना चाहिये। इससे साफ और क्या कहा जा सकता है ? और जब पादरी-पुरोहितो तकको भी अपनी पार्टीमे लेनेकी राय वह देता है, वशर्ते कि उनका प्रधान काम धर्म प्रचार न होके पार्टीके कार्य- क्रमको पूरा करना ही हो, तो फिर निरीश्वरताके इलजामके कुछ मानी रही नहीं जाते। जो पादरी पार्टीमे आके पार्टीके कामकी अपेक्षा धर्म प्रचारको ही प्रधान काम समझे और प्रधानतया (स्मरण रहे 'प्रधानतया' लिखा है) वही करे उसीको पार्टीसे निकालनेकी वात कही गई है। इससे तो और भो सफाई हो जाती है। वह तो कहता है कि हमे ऐसे सभी उपाय करने होगे जिससे धर्ममे विश्वास करनेवाले किसान-मजदूर जरूर हमारी पार्टीमे आयें और हमारी इस चीजका-नास्तिकताका-विरोध करें- इसके खिलाफ लडे । हमे उन्हे इसका मौका देनेके ही लिये पार्टीमें खीचना होगा। और यह तो जरूरी नहीं कि आस्तिक मजदूर थोडे और नास्तिक ही ज्यादा हो। बात तो उलटी ही होती है। फिर भी वह कहता है कि पार्टीके सदस्योको भी अपने स्वतत्र विचार रखनेको आजादी किसी हदतक रहनी ही चाहिये । फलत यदि पार्टीमे बहुमत आस्तिकोका ही हो जाय तो? लेनिनको इसकी पर्वा नहीं है। वह तो खूब जानता है