१२२ गीता-हृदय देके उन्हे वे लोग क्यो देते है ? सोचो। तुम्हे देनेसे तुम्हारी हिम्मत बढेगी और आगे फिर भी मागें पेश करोगे और ये मांगें जब वे पूरा न करेंगे तो उन्हे मिटाने चलोगे। मगर मन्दिरो और तीर्थोके पैसे तो उन्हें सूद-दरसूद सहित वापस मिलेंगे। क्योकि पडे, पुजारी, साधु-फकीर वगैरह तुम्हे भाग्य और भगवानके नामपर भडकायेंगे, गुमराह करेंगे और सघर्षसे विमुख करेगे | समझा न ? यही चाल है । इसमे हर्गिज न पडो और लडो। यदि तुम्हारा विश्वास हो कि ये साधु-फकीर वगैरह तुम्हारे ही साथी है, तो चलो खुलके वर्गसंघर्ष करो और उन्हें भी मददके लिये बुलाओ। उनसे कह दो कि प्राइये, मदद कीजिये। अभी तो हमारे पास कुछ है नही, तो भी आप लोगोको भरसक अच्छा ही खिलाते-पिलाते है। मगर इस सघर्षमें जीत होनेपर तो खूब माल चखायेगे और सुनहले वस्त्र पहनायेगे, सगमर्मरके महल बनवा देंगे। मठ-मन्दिर भी वैसे ही सजा देगे। मगर देखोगे कि वे हर्गिज तुम्हारा साथ न देगे, हालांकि उन्हे इसीमे लाभ है । साथ दें भी कैसे ? वे तो मालदारोके दलाल ठहरे न? वे मजबूर है, बंधे है। अपना फायदा सोचें या मालिकोका? इस प्रकार भौतिक बातोमे अध्यात्मवाद और ईश्वरका अडगा खडा करके साधु-फकीर और मन्दिर-तीर्थवाले सत-महत मालदारोका पक्ष करते और उनके विरुद्ध शोषितोके द्वारा चलाई जानेवाली हककी लडाई या वर्गसंघर्षमें बाधक होते है, यही बात मार्क्सवादके जरिये शोषितोंके दिल-दिमागमें बैठा दी जाती है। वे इसे बखूबी समझके वर्गसंघर्षसे धर्म या ईश्वरके नामपर नही मुडते। किन्तु उसे अविराम चलाते जाते है। इसी वजहसे पहले कहा गया है कि हडतालके समय नास्तिक-आस्तिक- वाली दलवन्दी मजदूरोमें हर्गिज रहने न दी जाय, होने न दी जाय । पुरोहित या पादरी तो जरूर चाहेगा कि यह दलवन्दी जारी रहे । मगर 1
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