पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२१७

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अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ २१५ 1 ? चालोको कुछ पता ही न लगा । वे तो और भी परीशानी में पड़ गये कि यह विडोजा कौनसी बला है । मघवामे तो मघ शब्द था जो माघ जैसा लगता था। मगर विडोजा तो एकदम अनजान ही है। ठीक यही बात यहाँ हो जाती है । ये शब्द तो कुछ समझमे आते भी है, कुछ परिचित जैसे लगते है। मगर इनके जो अर्थ बताये गये है वे ? वे तो ठीक बिडोजा जैसे है और समझमे आते ही नही । बेशक यह दिक्कत है। इसलिये भीतरसे पता लगाना होगा कि बात क्या है। एतदर्थ हमे उपनिषदोसे ही कुंजी मिलेगी। मगर वह कुजी क्या है यह जानने के पहले यह तो जान लेना ही होगा कि अधियज्ञ गीताकी अपनी चीज है । गीतामे नवीनता तो हई। फिर यहाँ भी क्यो न हो गीताने यज्ञको जो महत्त्व दिया है और उसके नये रूपके साथ जो उसकी नई उपयोगिता उसने सुझाई है उसीके चलते अध्यात्म आदि तीनके साथ यहाँ अधियज्ञका आ जाना जरूरी था । एक बात यह भी है कि यज्ञ तो भगवत्पूजाकी ही बात है। गीताकी नजरोमे यज्ञका प्रधान प्रयोजन है समाज-कल्याणके द्वारा आत्मकल्याण और आत्मज्ञान । गीताका यज्ञ चौबीस घटा चलता रहता है यह भी कही चुके है । इसलिये गीताने आत्मज्ञानके ही सिलसिलेमे यहाँ अधियज्ञ शब्दको लिखके शरीरके भीतर ही यह जानना-जनाना चाहा है कि इस शरीरमे अधियज्ञ कौन है ? वाहर देवताओको या तीर्थ और मन्दिरमें भगवानको ढूँढनेके बजाय शरीरके भीतर ही यज्ञ-पूजा मानके गीताने उसीको तीर्थ तथा मन्दिर करार दे दिया है और कह दिया है कि वही आत्मा-परमात्माको ढूँढो । बाहर भटकना बेकार है । प्रश्न और उत्तर दोनोमेही जो "इस शरीरमें" "अत्र देहेऽस्मिन्" कहा गया है उसका यही रहस्य है । इस सम्बन्धमे एक बात और भी जान लेना चाहिये। अगस्त कोन्त (Auguste Comte) नामक फ्रासीसी दार्शनिकने तथा और भी