पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२४३

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कर्मवाद २४५ 1 3 इसीलिये उनने उस व्यापक हाथ, शक्ति या पुरुषको स्वीकार किया, या यो कहिये कि ढूँढ निकाला। उसके विना इस ससारका काम उन्हे चलता नही दीखा। इसीलिये उसे पुरुष कहा, पुरुषका अर्थ ही है जो सर्वत्र पूर्ण या व्यापक हो। यदि उसमे अविद्या, भले-बुरे कर्म, सुख-दुख, रागद्वेष या भलेबुरे सस्कार मनुष्यो जैसे ही रहे तो फिर वही गडबड होगी। पुरुष तो जीवोको भी कहते है । आत्माये भी तो व्यापक है। इसीलिये उसे निराला पुरुष माना और पतजलिने योगसूत्रोमे साफ ही कह दिया कि "क्लेशकर्मविपाकाशगैरपरामृष्ट पुरुषविशेष ईश्वर" (१।२४) । इसका अर्थ यही है कि अविद्या आदिसे वह सर्वथा रहित है। इसीलिये उसे रत्ती-रत्ती चीजोका जानकार होना चाहिये । नहीं तो फिर भी दिक्कत होगी और ससारकी व्यवस्था ठीक हो न सकेगी। उसका ज्ञान ऐसा हो कि उसकी कोई सीमा न हो--वह भूत, भविष्य, वर्तमान सभी कालके सभी पदार्थोको जान सके । इसीलिये पतजलिने कहा कि “तत्र निरतिशय सर्वज्ञबीजम्" (११२५) । अगर वह मरे-जिये, कभी रहे कभी न रहे तो भी वही दिक्कत हो। इसलिये कह दिया कि वह समयकी सीमासे बाहर है-नित्य है, अजर-अमर है । जितने जानकार, विद्वान, दार्शनिक और तत्त्वज्ञ अवतक हो चुके उसके सामने सब फीके है-तुच्छ है। क्योकि देशकालसे सीमित तो सभी ठहरे और वह ठहरा इससे बाहर इसीलिये वह सबोका दादागुरु है-"पूर्वेषामपि गुरु कालेनानवच्छेदात्' (१।२६)। कर्मवाद मगर इतने से भी काम चलता न दीखा। यदि ऐसा ईश्वर हो कि जो चाहे सोई करे तो उसपर स्वेच्छाचारिता (Autocracy) का आरोप आसानीसे लग सकता है। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होनेके कारण उसकी स्वेच्छाचारिता बडी ही खतरनाक सिद्ध होगी।