२४६ गीता-हृदय ? 1 . जिस व्यवस्था और नियमितताके लिये हम उसे स्वीकार करते हैं या उसका लोहा मानते है, वहीं न रह पायेगी। क्योकि उसकी स्वतत्रता ही कैसी यदि उसपर वन्धन लगा रहा वह स्वतत्र ही कैसा यदि उसने किसी बातकी पर्वा की ? यदि उसपर कोई भी अकुश रहे, चाहे वह कैसा भी क्यो न हो, तो वह परतत्र ही माना जायगा। यह प्रश्न मामूली नहीं है। यह एक बहुत बड़ी चीज है। जब हम किसी बातको बुद्धि और तर्ककी तराजूपर तौलते है, तो हमे उसके नतीजोके लिये तैयार रहना ही होगा। यह दार्शनिक बात है। कोई खेल, गप्प या कहानी तो है नहीं। इस प्रकारके ईश्वरको माननेपर क्या होगा यह बात आँखे खोलके देखनेकी है। पुराने महापुरुषोने-दार्शनिकोने-इसे देखा भी ठीक-ठोक । वे इस पहेलीको सुलझानेमे सफल भी हुए, चाहे ससार उसे गलत माने या सही। और हमारी सभी बाते सदा ध्रुव सत्य है यह दावातो समझदार लोग करते ही नहीं। ज्ञानका ठेका तो किसीने लिया है नहीं। तव हमारे दार्शनिक ऐसी गलती क्यो करते ? उन्हें जो सूझा उसे उनने कह दिया। इस दिक्कतसे बचने के ही लिये उनने कर्मवादकी शरण ली। असलमें यह वात भी उनने अपने अनुभव और अांखो देखीके ही अनुसार तय की। उनने सोचा कि प्रतिदिन जो कुछ भी बुरा-भला होता है वह कामोके ही अनुसार होता है। चाहे खेतीवारी लें या रोजगार-व्यापार, पढना- लिखना, पारितोषिक, दण्ड और हिसा-प्रतिहिसाके काम । सर्वत्र एक ही वात पाई जाती है। जैसा करते है वैसा पाते है । जैसा बोते है वैसा काटते है। गाय पालते है तो दूध दुहते है। सांप पालके जहरका खतरा उठाते है। सिह पालके मौतका। जान मारी तो जान देनी पडी। पढा तो पान किया। न पढा तो फेल रहे। अच्छे काममें इनाम मिला और बुरेमें जेल या बदनामी हाथ पाई। असलमे यदि कामोके अनुसार परिणामकी व्यवस्था न हो तो ससारमें अन्धेरखाता ही मच जाये। जब इससे उलटा
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