पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कर्मवाद २४७ किया जाता है तो बदनामी और शिकायत होती है, पक्षपातका आरोप होता है। यदि इसमे भी गडवड होती है तो वह कामके नियमका दोष न होके लोगोकी कमजोरी और नादानीसे ही होती है। अगर कामके अनुसार फलका नियम न हो तो कोई कुछ करे ही न । पढनेमे दिमाग खपानेवाला फेल हो जाय और निठल्ला बैठा पास हो । खेती करनेवाले- को गल्ला न मिले और बैठे ठालेकी कोठी भरे । ऐसा भी होता है कि एकके कामका परिणाम वापरपराको भी भुगतना पडता है । यदि अपनी नादानीसे कोई पागल हो जाय तो वशमे भी उसका फल बच्चो और उनके बच्चोतक पहुंचता है। ऐसी ही दूसरी भी बीमारियाँ है । एकके कियेका फल सारा वश, गाँव या देश भी भुगतता है । इस प्रकार एक तो कर्म ही सारी व्यवस्थाके करनेवाले सिद्ध हुए। दूसरे उनके दो विभाग भी हो गये । एकका ताल्लुक उसी व्यक्तिसे होता है जो उसे करे। यह हुआ व्यप्टि कर्म । दूसरेका सम्बन्ध समाज, देश या पुश्त-दरपुश्तसे होता है। यही है समष्टि कर्म । ऐसा भी होता है कि हरेक आदमी अपने कामसे अपनी जरूरत पूरी कर लेता है । नदीसे पानी लाके प्यास बुझा ली। मिहनतसे पढके पास कर लिया। बेशक इसमे विवादकी गुजाइश है कि कौन व्यक्तिगत या व्यष्टि कर्म है और समष्टि। मगर इसमे तो शक नहीं कि व्यष्टि कर्म है। जहर खा लिया और मर गये । हाँ, समष्टि कर्ममे एकसे ज्यादा लोग शरीक होते है । कुआँ अकेले कौन खोदे ? खेती एक आदमी कर नहीं सकता। घर- बार सभी मिलके उठाते है । समष्टि कर्म यही है। सभी मिलके करते और फल भी सभी भोगते है। कभी-कभी एकका किया भी अनेक भुगतते है। फलत वह भी समष्टि कर्म ही हुआ। बस, तत्त्वदर्शियोने इस सृष्टिका यही सिद्धान्त सभी बातोमे लागू कर दिया। उनने माना कि जन्म, मरण, सुख, दुख, बीमारी, आराम