पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२४६

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२४८ गीता-हृदय वगैरह सभीके मूलमे या तो व्यष्टि या समष्टि कर्म है । उनने सभीकी स्वतत्रता मर्यादित कर दी। चावलो या पदार्थोके परमाणुअोके आने- जाने से लेकर सारे ससारके बनाने-बिगाडने या प्रबन्धका काम ईश्वरके जिम्मे हुआ और सभी पदार्थ उसके अधीन हो गये। ईश्वर भी जीवोके कर्मों के अनुसार ही व्यवस्था करेगा। यह नही कि अपने मनसे किसीको कोढी बना दिया तो किसीको दिव्य, किसीको राजा तो किसीको रक, किसीको लूटनेवाला तो किसीको लुटनेवाला। जीवोके कर्मोके अनुसार ही वह सब व्यवस्था करता है। जैसे भले-बुरे कर्म है वैसी ही हालत है, व्यवस्था है। कही चुके है कि बहुतेरे कर्म पुश्त-दरपुश्ततक चलते है। इसीलिये इस शरीरमें किये कर्मोंमें जिनका फल भुगतना शेष रहा उन्हीके अनुसार अगले जन्ममें व्यवस्था की गई। जैसे भले-बुरे कर्म थे वैसी ही भली-बुरी हालतमें सभी लोग लाये गये । इस तरह ईश्वरपर भी कर्मोका नियत्रण हो गया। फिर मनमानी घरजानी क्यो होगी तब वह निरकुश या स्वेच्छाचारी क्यो होगा? कर्म भी खुद कुछ कर नहीं सकते। वह भी किसी चेतन या जानकारके सहारे ही अपना फल देते है । वे खुद जड या अन्धे जो ठहरे। इस तरह उनपर भी ईश्वरका अकुश या नियत्रण रहा-वे भी उसके अधीन रहे । साराश यह कि सभीको सबकी अपेक्षा है। इसीलिये गडबड नहीं हो पाती। किसीका भी हाथ सोलह आना खुला नही कि खुलके खेले । कोंके भेद और उनके काम यह तो पहले ही कह चुके हैं कि जब कर्म अपना फल देते हैं तो उस फलकी सामग्रीको जुटाकर ही। कर्मोंका कोई दूसरा तरीका फल देनेका नही है । यकायक आकाशसे कोई चीज वे टपका नही देते । अगर जाडेमें आराम मिलना है तो घर, वस्त्र प्रादिके ही रूपमे कर्मोंके फल मिलेंगे। ?