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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२४७

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कोंक भेद और उनके काम २४६ इन्ही कोंके तीन दल प्रकारान्तरसे किये गये है। एक तो वे जिनका फल भोगा जा रहा हो। इन्हे प्रारब्ध कहते है। प्रारब्धका अर्थ ही है कि जिनने अपना फल देना प्रारभ कर दिया। लेकिन बहुतसे कर्म बचे- बचाये रह जाते है । सबोका नतीजा बरावर भुगता जाय यह सभव नही। इसलिये बचे-बचायोका जो कोष होता है उसे सचित कर्म कहते है। सचितके मानी है जमा किये गये या बचे-बचाये। इसी कोषमे सभी कर्म जमा होते रहते है। इनमे जिनकी दौर शुरू हो गई, जिनने फल देना शुरू कर दिया वही प्रारब्ध कहे गये। इन दोनोके अलावे क्रियमाण कर्म है जो प्रागे किये जायेंगे और सचित कोषमे जमा होगे। असलमे तो कर्मोंके सचित और प्रारब्ध यही दो भेद है। क्रियमाण भी सचितमे ही आ जाते है । यो तो प्रारब्ध भी सचित ही है। मगर दोनोका फर्क बता चुके है। यही है सक्षेपमे कर्मोकी बात ।। अब जरा इनका प्रयोग सृष्टिकी व्यवस्थामे कर देखे । पृथिवीके बननेमे समप्टि कर्म कारण है । क्योकि इससे सबोका ताल्लुक है- सबोको सुख-दुख इससे मिलता है। यही बात है सूर्य, मेघ, जल, हवा आदिके बारेमे भी। हरेकके व्यक्तिगत सुख-दु ख अपने व्यष्टि कर्मके ही फल है। अपने-अपने शरीरादिको एक तरहसे व्यष्टि कर्मका फल कह सकते हैं । मगर जहाँतक एकके शरीरका दूसरेको सुख-दुख पहुँचानेसे ताल्लुक है वहाँतक वह समष्टि कर्मका ही फल माना जा सकता है। यही समष्टि और व्यष्टि' कर्म चावल वगैरहमे भी व्यवस्था करते है। जिस किसानने चावल पैदा करके उन्हें कोठीमे बन्द किया है उसके चावलोसे उसे आराम पहुँचना है। ऐसा करनेवाले उसके व्यष्टि या समष्टि कर्म है जो पूर्व जन्मके कमाये हुए है। यदि चावलोके परमाणु निकलते ही जायें और आये नही, तो किसान दिवालिया हो जायगा। फिर आराम उसे कैसे होगा ? इसलिये उसीके कर्मोंसे यह व्यवस्था हो गई कि नये