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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३४६

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गीता-हृदय चुके है कि उन शब्दोसे साकार या व्यक्त कृष्णको समझना असभव है-- ऐसी कोशिश करना भारीसे भारी भूल है। जो कुछ हमें इस सम्बन्धमें कहना था वही कह चुके है । उसे इन भाष्योके भी सम्बन्धमें पूरा-पूरा लागू किया जा सकता है। रह गई इन दोनो भाष्यकारोकी यह दलील कि धर्मका अर्थ उसका फल और कर्तृत्वादि है, न कि धर्मका स्वरूप, क्योकि गीताके इसी अठारहवें अध्यायके शुरूमे ही त्यागका यही अर्थ माना गया है । हमने पहले योग या कर्म तथा फलमे अनासक्ति एव बेलगावकी वातपर विचार करते हुए गीताके श्लोकोके बीसियो दृष्टान्त दिये है। उनके देखनेसे साफ हो जाता है कि ताने बार-बार कर्म और उसके फलका साथ- साथ वर्णन करके दोनो हीकी आसक्तिको मना किया है। यही नहीं। "सुखदु खे समेकृत्वा” (२१३८) जैसे अनेक श्लोकोमे कर्मका जिक्र न भी करके उसके फलोको ही साफ-साफ लिखा और उनमे आसक्तिको सख्तीसे रोका है। जैसा कि पहले विस्तारके साथ समदर्शनकी बात कही जा चुकी है, यह समदर्शन कर्मोके सम्बन्धमे न होके अनेक स्थानोपर कर्मके फलोंसे ही ताल्लुक रखता है । “यदृच्छाला सतुष्ट' (४।२२), "न प्रहृष्ये- प्रिय प्राप्य" आदि (५।२०-२२), "सुहृन्मित्रायुदासीन" (६६), "अद्वेष्टा सर्वभूताना" आदि (१२।१३-१६) तथा "उदासीनवदासीन श्रादि (१४१२३-२५) श्लोकोको यदि गौरसे देखा जाय तो कोका जिक्र न भी करके फलोसे ही अलग रहनेकी वातपर जोर देते है। दूसरे अध्यायके स्थितप्रज्ञ, बारहवेके भक्त और चौदहवेके गुणातीत- ये तीनो ही-है क्या यदि कर्मोके फलोसे कतई निलेप रहनेवाले लोग नही है? इस प्रकार गीताने असल चीज फलकोही माना है और उसीसे वचने, उसीके त्याग और उसीकी अनासक्तिपर खास तौरसे जोर दिया है। " "