"सर्व धर्मान्परित्यज्य" ३५१ . यही कारण है कि कर्मोके साथ तो फलोको अलग लिखा ही है, मगर स्वतत्र रूपसे भी जगह-जगह लिखा है। दूसरे अध्यायमे जब गीताकी अपनी चीज--योग-का स्वरूप उसने “कर्मण्येवाधिकारस्ते" (२।४७- ४८) मे बताया है, तो फलको अलग कहनेकी जरूरत पड़ी है। उसके विना काम चली नही सकता था। यदि उसे अलग नही कहते तो योग ही चौपट हो जाता। उसकी असली शकल वन सकती न थी। गीता तो कर्मको न देख उसकी आसक्तिको ही देखती और उसीको रोकती है। उसीके साथ उसके फलकी इच्छा और आसक्तिको भी हटाती है । यह वात हम बहुत अच्छी तरह सिद्ध कर चुके है । यह भी बखूबी वता चुके है कि अठारहवे अध्यायके "निश्चय शृणु मे तत्र" (१८।४) से लेकर "स त्यागीत्यभिधीयते"(१८।११) तकके श्लोकोमे साफही उसी कर्मासक्ति तथा फलासक्तिका त्याग कहा गया है। फिर भी हमे आश्चर्य होता है कि उन भाष्योके रचयिता महापुरुष इन्ही ४से ११ तकके श्लोकोके आधारपर “सर्वधर्मान्"मे धर्मका अर्थ उसका फल और धर्मके करनेका अभिमान यह अर्थ कर डालते है । दोनोकी आसक्ति अर्थ करते तो एक वात थी। यदि उन श्लोको या गीताके योग-कर्मयोग की बात यहाँ होती और उसीका उपस हार इस श्लोकमे माना जाता तो क्या कभी यह बात सभव थी कि कर्म और फल या धर्म और फलको साफ-साफ न कहते और दोनोकी आसक्तिका अत्यन्त साफ शब्दोमे निषेध न करते ? गीताकी तो यही रीति है और इसे उसने कही एक जगह भी नहीं छोडा है। यह वात हम दावेके साथ कह सकते है । वीसियो जगह यह बात गीता भरमे आई है। मगर सभी जगह नियमित रूपसे कर्मासक्ति और फलासक्तिका त्याग साथ कहा है। फिर उपसहारमे भी वही वात क्यो न की जाती ? ऐसा न करनेसे तो अर्जुनके लिये साफ ही शकाकी गुजाइग रह जाती
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