पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३६४

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गीताकी अध्याय-संगति ३६६ उसी ज्ञानमे मदद मिलती है। इस प्रकार ब्योरेवार निरूपणके द्वारा विज्ञानमे ही ये चारो अध्याय मदद करते है । ७वे का विषय जो ज्ञान- विज्ञान कहा है वह तो कोई नई चीज है नही। इसमे ज्ञान या विज्ञानका स्वरूप बताया गया है नही कि वही इसका विषय हो। सिर्फ पहलेके ही ज्ञानकी पुष्टि की गई है। इसी प्रकार नवेका विषय राजविद्या-राज- गुह्य लिखा है। मगर उसके दूसरे ही श्लोकमे ज्ञान-विज्ञानका ही नाम राजविद्या-राजगुह्य कहा गया है । इसलिये यह भी कोई नई चीज है नही। आठवेका विषय जो तारक ब्रह्म या अक्षरब्रह्म है वह भी कोई नई चीज नही है । अविनाशी ब्रह्म या आत्माके ही ज्ञानसे लोग तर जाते है-मुक्त होते है और उसका प्रतिपादन पहले होई चुका है। प्रोकारको भी इसीलिये अक्षर या तारक कहते है कि ब्रह्मका ही वह प्रतीक है, प्रति- पादक है । दसवेको तो विभूतिका अध्याय कहा ही है और विभूति है वही भगवानका विस्तार । इसलिये यह भी कोई स्वतत्र विषय नही है इस प्रकार ब्योरेके प्रतिपादनके बाद पूरी तौरसे दिमागमे बैठानेके लिये प्रत्यक्ष ही उसी चीजको दिखाना जरूरी होता है और ग्यारहवे अध्याय- मे यही बात की गई है । भगवानने अर्जुनको दिव्य दृष्टि दी है और उसने देखा है कि भगवानसे ही सारी सृष्टि कैसे बनती और उसीमे फिर लोन हो जाती है। यदि प्रयोगशालामे कोई अजनबी भी जाय तो यत्रो तथा विज्ञानके बलसे उसे अजीब चीजे दीखती है जो दिमागमे पहले नही आती थी। कहना चाहिये कि उसे भी दिव्य-दृष्टि ही मिली है। दिव्य-दृष्टि के सीग पूछे तो होती नहीं। जिससे आश्चर्यजनक चीजे दीखे और बाते मालूम हो वही दिव्य-दृष्टि है। इसलिये ११वेमे विज्ञानकी ही प्रक्रिया है । ग्यारहवेके अन्तमे जिस साकार भगवानकी वात आ गई है उसकी और उसीके साथ निराकारकी भी जानकारीका मुकाविला ही बारहवेमे है। यदि उसके अन्तवाले भक्तनिरूपणको १४वेके अन्तके गुणातीत २४