पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३६५

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३७० गीता-हृदय . - तथा दूसरेके अन्तके स्थितप्रज्ञके निरूपणसे मिलायें तो पता चलेगा कि तीनो एक ही है । इसीसे मालूम होता है कि वारहवेंकी भक्ति तत्त्वज्ञान ही है जो पहले ही आ गया है। यहां सिर्फ व्योरा है उसीकी प्राप्तिके उपायका। १३वेमे क्षेत्रक्षेत्रज्ञका निरूपण भी वही विज्ञानकी बात है। १४वेका गुणनिरूपण सृष्टिके खास पहलूका ही दार्शनिक ब्योरा है। पन्द्रह्म पुरुषोत्तम या भगवान और जन्ममरणादिकी वाते, १६३में प्रासुर सम्पत्तिकी वात और १७वेकी श्रद्धा विज्ञानसे घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। इसमें तथा १८वेमे गुणोके हिसाबसे पदार्थोका विवेचन गुण-विभागमें ही आ जाता है। अन्तमे और शुरूमे भी १८वेंमें कर्म, त्याग आदिका ही उपसहार एव सन्यासकी बात है जो पहले आ चुकी है। ध्यानयोग भी पहले पाया ही है । उसीका यहाँ उपमहार है । योग और योगशास्त्र गीताके योग शब्दको लेके कुछ लोगोने जानें क्या-क्या उडाने मारी है और गीताका अर्थ ही सन्यास-विरोधी योग उसीके बलपर कर लिया है। इतना ही नही । ज्ञानमार्गके टीकाकारो और शकर वगैरहपर उनने काफी ताने-तिश्ने भी कसे है और खडन-मडन भी किया है। उनने इस योग, हर अध्यायके अन्तके समाप्ति सूचक “इतिश्री" आदि वचनोमें "योगशास्त्रे" तथा "भगवद्गीतासु" शब्दोको बार-बार देखके यही निश्चय किया है कि एक तो गीतामें केवल प्रवृत्ति रूप योग या सन्यास-विरोधी कर्मका ही निरूपण है-यह उसीका शास्त्र है, दूसरे यह योग भागवत या महाभारतवाला भागवतधर्म या नारायणीय धर्म ही है। उन्होने उसे ही गीताका प्रतिपाद्य विषय माना है। इसीलिये जरूरत